१७२. पत्र : मथुरादास त्रिकमजीको
साबरमती आश्रम
रविवार, चैत्र सुदी ८ [२१ मार्च, १९२६][१]
चि० मथुरादास,
बहुत दिनों बाद तुम्हारा पत्र मिला। मैं राह तो देख ही रहा था। मेरा सारा समय अन्य कार्यों में चला जाता है, जिससे आजकल कुछ खास लिख नहीं पाता। इसीलिए मैं शिथिल हो गया हूँ। लेकिन जब तुम्हारा अथवा देवदासका पत्र नहीं आता तब तनिक चिन्ता हो जाती है। यह बात अब समझमें आ गई है कि तुम्हारी तबीयत धीरे-धीरे सुधरेगी। तुम निश्चिन्त होकर वहाँ आराम करो, यह तुम्हारा धर्म है। मेरा अप्रैल मासमें मसूरी जाना तय हुआ है। वहाँ ऐसी सुविधा रहेगी कि कुछ और लोग भी आ सकें। तुम्हें छुट्टी मिले तो क्या तुम वहाँ नहीं आ सकते? हो सकता है, तुम्हारे स्वास्थ्यके लिए यह ज्यादा ठीक सिद्ध हो। खाने-पीनेकी व्यवस्था तो रहेगी ही।
गुजराती प्रति (एस० एन० १९३७२) को माइक्रोफिल्मसे।
१७३. भाषण : संगीतके बारेमें[२]
[२१ मार्च, १९२६][३]
हमारा एक पुराना सुभाषित है कि जिसे संगीत प्रिय नहीं होता, वह या तो योगी होता है या पशु। हम लोग योगी तो हैं नहीं, अतः यह जरूर कहा जा सकता है जिस हदतक हम संगीत-शून्य हैं उस हदतक हम पशु-तुल्य हैं। संगीत जाननेका मतलब यह होना चाहिए कि हम अपना सारा जीवन संगीतमय कर लें। हमारे जीवन में संगीत नहीं है, वह सुरीला नहीं है, यही कारण है कि हमारी ऐसी दयनीय दशा है। जहाँ प्रजा एक सुर न निकाल सकती हो, वहाँ स्वराज्य कैसे हो सकता है?
जहाँ एक सुर नहीं निकलता, जहाँ हरएक अपना-अपना राग अलापता है या जहाँ सब तार टूटे हुए होते हैं, वहां अराजकता या कुराज्यकी ही स्थिति हो सकती