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पत्र : मोतीबहन चौकसीको

आपने 'नवजीवन' का आकार बढ़ाने और अधिक लेख देने और जरूरत जान पड़े तो उसका चन्दा बढ़ानेकी जो सलाह दी है, उसमें आपका हेतु निर्मल है, लेकिन उसपर अमल नहीं किया जा सकता। हाँ, 'आत्मकथा' का भाग बढ़ाया जा सका तो थोड़ा बढ़ानेका प्रयत्न करूँगा।

गुजराती प्रति (एस० एन० १०८५०) की माइक्रोफिल्मसे।

१७१. पत्र : मोतीबहन चौकसीको

साबरमती आश्रम
रविवार, चैत्र सुदी ८ [२१ मार्च, १९२६][१]

चि० मोती, तुम्हारा पत्र मिला। तुम्हारी बात मैं समझ सकता हूँ, फिर भी मेरी शिकायतको तो तुम्हें नोट करना ही चाहिए। जो बच्चे अपने बड़ोंके प्रति खूब स्नेह-भाव रखते हैं, वे उत्तरोत्तर सुधरते ही जाते हैं, क्योंकि वे बड़ोंकी आशा पूरी करनेका प्रयत्न अवश्य करते हैं। अक्षरोंको जमाकर लिखना तो बहुत ही आसान बात है। एक-दो पत्र मुझे ऐसे आये भी जिनकी लिखावट ठीक थी। और कुछ लिखनेकी बात क्यों नहीं सूझती? जिसे लिखनेकी इच्छा हो उसे क्या विषयकी खोज करनी पड़ती है? चौबीस घंटोंमें अनेक घटनाएँ होती हैं; उनका वर्णन किया जा सकता है। अनेक विचार आते हैं, उन्हें लिखा जा सकता है। व्यक्तियोंका आना-जाना होता रहता है; उसके समाचार दिये जा सकते है। लेकिन यदि निरन्तर लिखने में कष्ट हो तो भले ही सप्ताह में एक बार लिखो। शर्त सिर्फ इतनी ही है कि अक्षर सुन्दर होने चाहिए और पत्र में सारी बातें आ जानी चाहिए। मेरे कहनेका मतलब इतना ही है कि जो-कुछ करने की प्रतिज्ञा की हो, उसे आनन्दपूर्वक तन्मय होकर करना चाहिए, तभी प्रतिज्ञाका पालन हुआ कहा जा सकता है।

बापूके आशीर्वाद

[पुनश्च :]

अब भाई नाजुकलालको भी लिखूँगा।[२]

गुजराती पत्र (एस० एन० १२१२०) की फोटो-नकलसे।

 
  1. मोतीवहन द्वारा आश्रम छोड़ते समय गांधीजीको पत्र लिखने की प्रतिज्ञाके उल्लेखसे।
  2. यह वाक्य गांधीजोके स्वाक्षरोंमें है।