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१६९. पत्र : रामनारायणसिंहको

आश्रम
२१ मार्च, १९२६

भाईश्री रामनारायणसिंह,

आपका पत्र मिला। अपील भी मिली। आप कहते हैं आपके जिल्लेमें कुछ काम नहीं होता है। कर्मचारीगण केवल अपनेको सर्वज्ञ समजते हैं, और करते हैं लड़कपन। इस हालतमें भवन बनानेसे क्या लाभ हो सकता है? इसमें में संमत भी कैसे हो सकता हूँ? भवन बननेसे न लड़कपन मिट सकता है, न सेवाभाव आ सकता है। भवन तो वही बनना चाहिए जिस जगह पे सेवक बढ़ते जाते हैं, सबनियमका पालन करते हैं, सबपर लोगोंका विश्वास है, और सब एक दूसरेको मानते हैं, और संगठित होकर रहते हैं। मेरी तो आपसे अवश्य यह सलाह है कि जबतक अच्छी तरहसे काम करनेवाले सेवक इकट्ठे न हो, भवनका खयालतक भी न करें।

आपका,
मो [हनदास]

मूल पत्र (एस० एन० १९८७९) की माइक्रोफिल्मसे।

१७०. पत्र : चुन्नीलाल रंगवालाको

साबरमती आश्रम
रविवार चैत्र सुदी ८ [२१ मार्च, १९२६]

भाईश्री ५ चुन्नीलाल,

आपका पत्र मिला। जब अपनी भानजीपर आपका पूर्ण अंकुश नहीं है, तब आप उसके लिए उत्तरदायी नहीं माने जा सकते। आप अपना विरोध प्रकट कर चुके हैं और विवाह आदि विधियोंमें भाग नहीं लेंगे, आपके लिए इतना ही पर्याप्त है।

आश्रम में जो विवाह-विधि हुई, उसमें अन्य शास्त्रीय क्रियाएँ शामिल थीं और सम्बन्धित प्रान्तोंके जाने-माने शास्त्रियों के द्वारा वे सम्पन्न कराई गई थीं। लेकिन उसमें अन्य लौकिक आडम्बर नहीं था और मैं मानता हूँ कि उसकी आवश्यकता भी नहीं है। सप्तपदीमें आनेवाली प्रतिज्ञा जानने योग्य हैं, इसलिए उसे मैंने छपवा दिया था। मैं वास्तु क्रिया करनेकी कोई आवश्यकता नहीं समझता। सब लोग अपनी सारी सम्पत्तिका दान कर देंगे, ऐसी आशा मैंने कभी नहीं की; लेकिन मैं यह अवश्य मानता हूँ कि यदि वे ऐसा करते हैं तो इसमें अनुचित कुछ नहीं है।