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बंगालकी विशेषता

स्थितिपर पहुँचने के लिए तो हमें प्रतिवर्ष करोड़ों रुपयेकी खादी तैयार करनी पड़ेगी। चूँकि हमारा उद्देश्य खादीको व्यापक बनाना है; इसलिए साधारण तौरपर हमारा नियम यही होना चाहिए कि जहाँ जितनी खादी तैयार की जाये वहाँ उतनी पहनी भी जाये। इसे सफल बनाने के लिए हम जितना अधिक प्रयत्न करेंगे, खादी उतनी ही शीघ्र व्यापक होगी। इसमें केवल वे ही प्रान्त अपवाद गिने जा सकते हैं, जहाँ खादी तैयार करना मुश्किल है। लेकिन ऐसा प्रान्त शायद ही कोई होगा। खादीके मुख्य स्थान तो तमिलनाडु, आन्ध्र-देश, पंजाब और बिहार हैं। वहीं काम करनेवाली संस्थाएँ अपने मालकी खपतके लिए बाहरकी निकासीपर अधिक निर्भर हैं। इन सब स्थानों में अभी खादीकी स्थानिक बिक्री जितनी होती है, उससे अधिक होनी चाहिए। दूसरे प्रान्तोंको उन प्रान्तोंकी खादीकी आवश्यकता होगी तो वे उसे सहज ही प्राप्त कर सकेंगे। परन्तु यदि प्रान्तिक संस्थाएँ अपने प्रान्तोंमें ही खादीकी बिका प्रयत्न करेंगी तो इससे खादीका उत्पादन बहुत बढ़ जायेगा और बहुत-सा खर्च भी बच जायेगा।

इस बारेमें बंगाल हमें मार्ग दिखा रहा है। खादी प्रतिष्ठानने प्रथम तो निर्भय होकर पर्याप्त परिमाणमें खादी उत्पन्न की। अब वह 'मैजिक लैन्टर्न' आदि साधनोंके प्रयोगसे उसकी बिक्रीका प्रचार कर रहा है। उसकी योजना है कि खादीका प्रचार करनेके लिए जितने धनकी आवश्यकता हो, वह भी वहींसे प्राप्त करने का प्रयत्न किया जाये। उसने इस कार्यका आरम्भ स्थानिक धनसे ही किया था। यदि इन तीन नियमोंको—स्थानिक उत्पादन, स्थानिक उपयोग और स्थानिक सहायताक— ध्यानमें रखकर खादीको प्रवृत्ति चलाई जाये तो खादीका प्रचार बहुत बढ़ सकेगा और खर्च भी ज्यादा से ज्यादा घटाया जा सकेगा। सच पूछिए तो खादीकी महत्ता इसीमें है। उसका गूढ़ रहस्य इसीमें छिपा हुआ है। जन-समाजको खादीकी आवश्यकता है, इसी मान्यतापर तो उसका अस्तित्व निर्भर है। हमें प्रतिक्षण इस मान्यताको सिद्ध करना चाहिए। और जब घनकी सहायता भी जहाँ चाहिए वहींसे जुटाई जाने लगेगी, तब लाखों मनुष्योंसे प्राप्त एक-एक आनेसे लाखों रुपयेकी मदद मिल जायेगी। और इस सहायतामें जो बरकत होगी वह शायद एक मनुष्यके द्वारा दिये गये एक करोड़ रुपयेके दानमें भी नहीं हो सकती।

इस आदर्शको प्राप्तिमें कुछ समय लगेगा और कठिनाई भी होगी। परन्तु इस आदर्शको भूल जाने से तो खादी स्थान-भ्रष्ट हो जायेगी। खादी शुद्ध रीतिसे गरीबों की पोषक बने, इसके लिए यह अत्यन्त आवश्यक है कि उपरोक्त तीनों नियमोंका अधिकाधिक पालन किया जाये। इस संक्रातिकालमें हमें दूसरे प्रयत्न भी करने होंगे, दूसरोंकी मदद भी लेनी होगो और प्रान्तों में आपसी सहानुभूतिकी आवश्यकता भी होगी। लेकिन यदि हम अपने प्रकाश-स्तम्भको ही भूल जायेंगे तो जैसी दशा असावधान माँझीकी होती है, वैसो हो खादी-सेवकों को भी होगी। बंगाल हमें इसको याद दिलाता है।

[गुजरातोसे]
नवजीवन, २१-३-१९२६