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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

जितना चाहता हूँ उतना धीरज नहीं है। मैं कृत्रिम आचरण तो कर ही नहीं सकता। इसीलिए में बकरीका दूध पीकर जीता हूँ। लेकिन जैसे अनशन मेरे जीवनका एक सम्भाव्य भाग है, वैसे ही दूधका त्याग भी है। इसके बारेमें जब मुझमें शुद्ध वैराग्य उत्पन्न होगा तब क्या मैं किसीके रोके रुक सकूँगा? यदि रुक सकूँगा तो वह शुद्ध वैराग्य कैसा?

लेकिन मैं बकरीके दूधका भी त्याग करूँगा, तब भी समाजके लिए दूधकी पवित्रताका समर्थन करूँगा। मैं समाजमें मृत पशुकी हड्डियोंके बने बटनोंका प्रचार करता हूँ, इसीसे आप मुझे जो बटनोंका उपयोग नहीं करता, उनका उपयोग करनेके लिए तो नहीं कहेंगे? अथवा जब मैं यन्त्र-चालकोंको कहता हूँ कि वे अपने यन्त्रोंके लिए कल न किये गये पशुओंकी चरबीका उपयोग करें तब आप हमें आश्रममें भी ऐसी एक-दो मन चरबी इकट्ठा कर रखनेके लिए तो नहीं कहेंगे, यद्यपि कत्ल किये हुए पशुओंकी चरबीको अपेक्षा मरे हुए पशुओंकी चरबीकी पवित्रताका समर्थन हम सभी करते हैं?

गायके दूधके त्यागसे अहिंसाकी पूरी सेवा नहीं होती, यदि मुझे ऐसा प्रतीत हो तो मैं अवश्य इस व्रतको छोड़ दूँ, क्योंकि फिर यह बात व्रतोंकी पंक्ति में ही नहीं आ सकती।

यदि आप इसमें अब भी कोई कमी देखें तो मुझे अवश्य लिखें। मैं यदि मोहवश गाय-भैंसके दूधका त्याग करता होऊँ तो आपको मुझे उससे बचानेका प्रयत्न अवश्य करना चाहिए।

मेरा मसूरी जाना आज ही निश्चित हुआ है। आप आयें या न आयें, लेकिन आपके लिए मसूरीमें प्रबन्ध तो किया ही गया होगा।

गुजराती प्रति (एस० एन० १९८७८) की माइक्रोफिल्मसे।

१५९. पत्र: प्रभुदासको[१]

[२० मार्च, १९२६][२]

प्रभुदास,

घड़ी-सम्बन्धी व्रतके विषय में तुम जिस बेचैनीका उल्लेख करते हो, मुझे वह बेचैनी घड़ीके व्रतके कारण नहीं, मनमें अपरिग्रहके अभावके कारण होती है। लेकिन मनको अपरिग्रही बनानेका मैं इसके सिवा कोई दूसरा रास्ता नहीं जानता कि घड़ी के व्रतके समान व्रत लिये जायें। जो मनुष्य अनेक घड़ियाँ लेनेके लिए स्वतन्त्र हो, यदि वह एक घड़ीकी चिन्ता न करे तो यह कोई उसका गुण नहीं है। दूसरोंके खर्चपर उसकी यह निश्चितता सहज ही लापरवाहीका रूप ले सकती है। व्रत लेनेके बावजूद

 
  1. यह पिछले शीर्षक (एस० एन० १९८७८) के अन्तमें जोड़ा हुआ मिला है।
  2. पिछले शीर्षकमें दी गई तिथि।