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१५७. पत्र : धनजीको

२० मार्च, १९२६

भाईश्री धनजी,

आपका पत्र मिला। मैंने उसे गंगास्वरूप गंगाबहन और भाईश्री लक्ष्मीदासको पढ़ा दिया है। बहन मोतीके बारेमें मैंने जो अंश लिखा था, वह भाई लक्ष्मीदासको दिखाने के बाद ही प्रकाशित किया था। वे दोनों कहते हैं कि भाटिया जातिमें कन्या-विक्रय प्रचलित अवश्य है; लेकिन इसका अर्थ यह नहीं है कि प्रत्येक भाटिया कुटुम्ब, जिसमें कन्या होती है, उसका विक्रय करता है। यदि कन्या-विक्रय एक सामान्य प्रथा है तो मुझे लगता है कि मैंने तनिक भी अतिशयोक्ति नहीं की है। आपको तो मालूम होगा कि भाटिया जातिमें कन्या आसानीसे नहीं मिल सकती इसलिए बहुत-से भाटिये हरिद्वार जाकर वहाँसे कन्या ले आते हैं। वे वहाँ भी पैसा तो देते ही हैं। अभी हाल ही, मेरी दृष्टिमें ऐसे ही एक अच्छे परिवारका उदाहरण आया है, जिसमें हरिद्वारसे कन्या लाई गई है। उसे उसके पैसे भी देने पड़े हैं। वह परिवार शिक्षित है। हम लोगोंमें अपने व्यक्तिगत अथवा समाजगत दोषोंके दर्शनके सम्बन्ध में कुछ असहिष्णुता आ गई है। हमारी स्थिति तो ऐसी होनी चाहिए कि यदि कोई हमें हमारा दोष बताये तो हम उससे प्रसन्न हों—फिर भले ही वे दोष सद्भावसे बताये गये हों अथवा दुर्भावसे। मैं जबसे देशमें वापस आया हूँ तबसे भाटियोंसे मेरा सम्पर्क तो रहा ही है और सभीने मुझसे कन्या-विक्रय और ऐसे ही अन्य दोषोंकी चर्चा की है। लेकिन अगर आपको अब भी ऐसा लगे कि मैंने कहीं भूल की है तो आप मुझे अवश्य फिर पत्र लिखें। देशके अथवा विदेशके किसी व्यक्तिके अथवा किसी समाजके दोषोंको देखना, उनकी चर्चा करना अथवा उनपर विचार करना मुझे बिलकुल ही नहीं रुचता। मैं तो गुण-पूजक हूँ। लेकिन जब दोष स्वतः आँखों सामने उभर आते हैं अथवा कानमें उनकी झँकार होती है तब उनपर परदा डालना भी अनुचित है। इसलिए मैं प्रसंग आनेपर, यथासम्भव संयत रूपमें, उनकी चर्चा कर देता हूँ।

विवाह एक मांगलिक प्रसंग ही है; लेकिन संगीत, हँसी-मजाक आदिसे उसकी मांगलिकता बढ़ती नहीं, बल्कि घटती है। मांगलिकताका अर्थ है कल्याणकारी। वह कल्याणकारी तभी माना जा सकता है जब उसका धार्मिक रहस्य समझा जा सके और उसके अनुरूप चला जा सके। तुलसीदासजीने विवाह समारोह आदिका वर्णन किया है, सो इसलिए नहीं कि उनका अनुकरण किया जाये। तुलसीदासजीका विषय विवाह-वर्णन नहीं है, अपितु मोक्ष-दर्शन है। इस तत्त्वको काव्यमें प्रस्तुत करते हुए उन्होंने अनेक लोकाचारोंका वर्णन किया है। मैं 'रामायण' का भक्त हूँ; किन्तु उसके अक्षरोंका नहीं, उसकी आत्माका भक्त हूँ। तुलसीदासजीने तो ऐसी अनेक बातें