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१५५. पत्र : सी० रामलिंग रेड्डीको

साबरमती आश्रम
२० मार्च, १९२६

प्रिय मित्र,

मुझे उम्मीद थी कि मैं आपके पत्रका उत्तर हाथसे लिख सकूँगा, लेकिन यह नहीं होनेको था। एकके बाद एक कई दिनोंतक में बोलकर जवाब लिखाना इसलिए टालता रहा कि लिखनेका समय मिल जाये, लेकिन चूँकि मेरे दाहिने हाथको आरामकी जरूरत है और बायें हाथसे लिखना कठिन होता है—खासकर तब जबकि समयकी बहुत कमी हो—इसलिए आपके पत्रकी प्राप्ति सूचित करनेमें और देर न हो, इस खयालसे आखिरकार में बोलकर ही लिखवा रहा हूँ।

आपकी इस कठिनाईमें आपके प्रति मेरी पूरी सहानुभूति है, लेकिन इस समय कठिनाइयोंके इस प्रबल तूफानको कौन रोक सकता है? इसलिए केवल इतनी ही आशा की जा सकती है कि असहयोगियोंके सामने जो नई परिस्थिति आ सकती है, उसमें वे ऐसा आचरण करेंगे, जिससे देशका मान बढ़े।[१] यदि आप खादीको बनाये रख सकें और खादी जिस भावनाका प्रतीक है, उससे यदि आप अपने इर्दगिर्दका वातावरण भर सकें तो यही काफी होगा।

हृदयसे आपका,

श्रीयुत सी० रामलिंग रेड्डी,
चित्तूर

अंग्रेजी प्रति (एस० एन० १९३६७) की माइक्रोफिल्मसे।

१५६. पत्र : एक महिलाको

२० मार्च, १९२६

आपका पत्र मिला। आपको खादीकी चोली अच्छी लगती है तो क्या अब आप साड़ीपर नहीं आयेंगी? किसी स्वदेशी-प्रेमीको विदेशी कपड़ेसे कैसे प्रेम हो सकता है? यदि हमें अपना देश प्यारा है तो हममें अपने देशकी चीजें पहनने का चाव होना चाहिए। हिन्दुस्तानके गरीबोंके हाथके कते और बुने कपड़ोके प्रति जिनके मनमें अरूचि हो, क्या वे भारतकी सन्तान माने जा सकते हैं? अब मैं आपके आगले पत्रमें ऐसी खबर पानेकी आशा रखता हूँ कि आपने विदेशी आप हाथकी कती-बुनी खादी पहनने लगी हैं।

गुजराती प्रति (एस० एन० १९८७६) की माइक्रोफिल्मसे।

  1. यहाँ साधन-सूत्र में कुछ भूल दिखाई देती है, जिसे सुधारकर अनुवाद किया गया है ।