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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

विदेशोंमें भेजे जाते हैं। और इन दोनों स्थितियों में बन्दरोंकी संख्या में होनेवाली कमीकी बातसे हम अप्रकट सन्तोष प्राप्त करते हैं, यह तीसरी बात है। ऐसी स्थिति में हमें क्या करना चाहिए? यदि इस तरह हम थोड़े-से बन्दरोंके नाशसे मुक्त हो सकते हों तो ऐसा करना धर्म होगा अथवा समाजके एक अंगके रूपमें उनके इस नाशके प्रति हमारा उदासीन रहना धर्म होगा? समाजके अंगके रूपमें हमारा सामाजिक धर्म क्या है? बन्दरोंके प्रश्नके समाधानमें कबूतरोंके प्रश्नका समाधान भी आ जाता है। कबूतरोंकी वृद्धि हम जान-बूझकर कर रहे हैं। इस बारेमें मुझे तनिक भी शंका नहीं है। पिंजरापोल एक आधुनिक संस्था है। इस संस्थामें जो दया-भावना है, उसके मूलमें ज्ञान है, ऐसा मुझे नहीं लगता और यह तो दरवाजा खुला रखकर छोटे-मोटे छिद्र बन्द करने-जैसी बात हुई। अहिंसापर मैं इस समय अहिंसाकी ही दृष्टिसे विचार कर रहा हूँ। मुझे ऐसा लगता है कि बन्दरों आदिके प्रश्नपर हम केवल रूढ़िवश हो व्यवहार करते हैं; बन्दरोंके हितका विचार नहीं करते। और दूसरा प्रश्न जो अहिंसासे ही उद्भूत होता है, यह है कि शरीरके साथ होनेवाले उपद्रवोंमें अहिंसक मनुष्य मर्यादाकी रेखा कहाँ खींचे।

ये बातें मैंने इसलिए लिखी हैं कि तुम इनपर फुर्सतके समय विचार करो। इनका उत्तर पानेकी मुझे तनिक भी उतावली नहीं है। प्रथम तो तुम स्वयं ही विचार करना। बादमें नाथके[१] साथ विचार करना और जिस निर्णयपर पहुँचो, उससे मुझे अवगत करना।

बापूके आशीर्वाद

गुजराती पत्र (एस० एन० १९८७१) की माइक्रोफिल्मसे।

१४७. पत्र : मॉड चीजमैनको

साबरमती आश्रम
१९ मार्च, १९२६

प्रिय मॉड,

तुम्हारा दूसरा पत्र मेरे सामने है। कितना अच्छा पत्र लिखा है तुमने! मेरे सामने दो ही रास्ते हैं—या तो उत्तर बोलकर लिखा दूँ या अगर खुद लिखना चाहूँ तो इसका उत्तर देना अनिश्चित कालतकके लिए रोक रखूँ। सो मैं बोलकर ही लिखा रहा हूँ। मेरे दाहिने हाथको आरामकी जरूरत है। बायेंसे भी लिख सकता हूँ, लेकिन उसमें समय बहुत लगता है।

तुम्हारा पत्र पढ़कर मुझे पुराने दिनोंके उन आनन्दपूर्ण क्षणोंकी याद आ गई, जब हम तोनों दूर-दूर तक घूमने जाया करते थे। माताजीसे कहो कि मुझे अकसर

  1. केदारनाथ कुलकर्णी।