इसी तरह मैं दक्षिण भारतके बाढ़-सहायता कोषकी बची हुई राशिके बारेमें भी आपकी सलाह चाहता हूँ। मथुरादासके हाथमें खासी रकम है और मेरे हाथमें भी। आप इसे किस काम में लगाना चाहते हैं। हमें जल्दी ही तय करना है। अलग-अलग कोषोंको मिलाकर, जो क्षेत्र बाढ़से प्रभावित हुए थे, उनमें चरखे और खादीके कामको आगे बढ़ाने के लिए एक ट्रस्ट कायम किया जा सकता है। जिन क्षेत्रोंपर बीच-बीचमें अकाल और बाढ़का प्रकोप होता है, उन्हें भी ट्रस्टमें शामिल किया जा सकता है। लेकिन, हो सकता है, आप कोई और सुझाव देना चाहें।
कुमारका लिखा एक पत्र भी मैं साथमें भेज रहा हूँ। मैंने उसे उत्तर नहीं दिया है और जबतक आप मुझे यह सूचित नहीं कर देते कि आप ये भार उठा सकते हैं या नहीं तबतक मैं उसे कोई उत्तर देना भी नहीं चाहता।
आपका,
श्रीयुत च० राजगोपालाचारी
गांधी आश्रम
अंग्रेजी प्रति (एस० एन० १९३६६) की फोटो-नकलसे।
१४६. पत्र : किशोरलाल मशरूवालाको
आश्रम
१८ मार्च, १९२६
चि० किशोरलाल,
तुम्हारे दोनों पत्र मिल गये। दूसरा पत्र आनेके बाद ही मैंने तुम्हें लिखनेका विचार किया था। तुमने जबसे पिंजरापोलके बारेमें लिखा है तभीसे मैं चिन्तित हूँ। मेरी इच्छा तो निरन्तर यही रही है कि तुम जल्दीसे-जल्दी देवलाली पहुँच जाओ।
बन्दरोंके प्रश्नके बारेमें तुम जो लेख दे गये थे, उसे तो मैं तभी पढ़ गया था। तुमने अपने पत्रके समान अपने लेखमें भी इस प्रश्नका समाधान अधूरा ही छोड़ा है। मुझे तो इस समय शुद्ध धार्मिक समाधान चाहिए। उसपर अमल तो बहुत दिनों में होगा। वर्षोंकी बद्धमूल भावना किसी गम्भीर कारणके बिना एकाएक कैसे समाप्त की जा सकती है? लेकिन इस समय यह प्रश्न हमारे सामने केवल धार्मिक दृष्टिसे खड़ा होता है। याद रहे कि बन्दरोंके वंशको हम स्वयं ही बढ़ाते रहे हैं। और अब हमें उनके नाशका साक्षी होना पड़ रहा है। यह नाश दो तरहसे होता है: (१) अंग्रेज और विदेशी लोग अपने-अपने मुहल्लोंमें आनेवाले बन्दरोंका नाश करते रहें और (२) जीवित बन्दर, उनपर उनके जीते-जी प्रयोग करनेके लिए,