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केवल परिमाणका भेद

उसके लिए उत्तरदायी होते हैं। यदि इन पंजाबियोंके मामले में भी यही बात हो तो उन्हें ऐसी हरएक बातको दूर कर देना चाहिए ताकि उनकी तरफ कोई उँगली न उठा सके। किसी व्यक्तिको चमड़ीका रंग चाहे जैसा हो, यदि उसके मनमें अपनी उचित प्रतिष्ठाका भान आ जाये तो वह पायेगा कि भले ही सारी दुनिया उसके खिलाफ हो, वह सिर ऊँचा करके खड़ा रह सकता है।

यहाँ मैं प्रसंगवश, जिस पत्रका अंश मैंने ऊपर उद्धृत किया है, उसके लेखकोंका ध्यान इस बात की ओर आकर्षित करना चाहूँगा कि पत्र यद्यपि काफी चुस्त-दुरुस्त और प्रशंसनीय ढंगसे लिखा हुआ है, फिर भी इसमें "ब्रिटेनके इतिहासमें उसपर आये सबसे घोर संकट और विपत्तिके दिनोंमें भारतीयों द्वारा की गई उसकी विशिष्ट सेवा" पर जो जोर दिया गया है, उसके कारण यह पत्र मुझे खटकता है।

यदि भारतने युद्धके समय अपनी खुशीसे उसकी सेवा की तो उसके बदले कृतज्ञताको माँग करने से उस सेवाका मूल्य घट जाता है, क्योंकि यह सेवा उसने कर्तव्य मानकर ही की और "जब कर्तव्य दानको भावनासे किया गया हो तभी वह पुण्य-कार्य माना जा सकता है।" लेकिन सच बात तो यह है कि उस समय जो सेवा अर्पित की गई थी, वह स्वेच्छासे नहीं की गई थी। इसके पीछे अंग्रेजोंका बल-प्रयोग या बल प्रयोग करनेकी धमकी एक बहुत बड़ा कारण थी। जब-जब इस सेवाका जिक्र किया जाता है, तब-तब यदि अंग्रेज लोग यह उत्तर नहीं देते हैं कि वह तो बेगारके तौरपर वैसे ही ली गई थी—वैसे ही जैसे कि अधिकारी लोग जब भारतीय गाँवोंके दौरेपर जाते हैं तो वहाँके लोगोंसे बेगारमें मजदूरी कराते हैं—तो यह उनका समझदारी-भरा संयम ही है। युद्धके दौरान पंजाबमें जो लोग भर्ती होनेके लिए घरसे निकलनेपर मजबूर किये गये थे, उन्हें अपनी उस समयकी सेवाके लिए ब्रिटिश सरकारसे कृतज्ञताकी आशा रखना तो दूर, उसपर अभिमान करनेका भी कोई कारण नहीं है। उस कृतज्ञताके पात्र तो माइकेल ओ'डायर थे, जिन्होंने पंजाबके सभी जिलोंसे उतने रंगरूटोंकी माँग की जितनेको भरती करने की जिम्मेदारी उन्हें सौंपी गई थी और चाहे जिस कीमतपर भी हुआ हो, उतनी संख्या पूरी भी कर दी।

[अंग्रेजीसे]
यंग इंडिया, १८-३-१९२६