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टिप्पणियाँ

करनेसे ही मिलेगी। कारण, भले ही इसके विरुद्ध कुछ भी क्यों न कहा जाये, वस्तुस्थिति यह है कि खास तौरसे जनसाधारणमें हिंसाके तरीकेमें विश्वास रखनेवाले लोग नहीं के बराबर हैं और स्वराज्य लेनेका ऐसा कोई भी तरीका सफल नहीं हो सकता, जिसको जनसाधारण भी स्वीकार न करले। यदि स्वराज्यकी परिभाषामें केवल कुछ व्यक्तियों या कुछ वर्गोंकी स्वतन्त्रता ही नहीं आती, बल्कि भारतके समस्त जनसाधारणकी स्वतन्त्रता आती है, तो जनतान्त्रिक स्वराज्यके लिए जैसी पूर्ण लोकचेतनाकी आवश्यकता है, उसको ठीक रूप और दिशा केवल असहयोग और उसके अन्तर्गत आनेवाली सभी बातें ही दे सकती हैं। जनसाधारण केवल अहिंसात्मक और रचनात्मक तरीकोंसे ही भली-भाँति संगठित होगा और उसीसे उसमें एक राष्ट्रीय उद्देश्यकी पूर्तिके लिए भावना पैदा होगी और राष्ट्रकी स्वतन्त्रता प्राप्त करने और सुरक्षित रखनेकी आकांक्षा जागेगी और उसकी योग्यता उसमें आयेगी।

खादीके सम्बन्ध में

पत्र-लेखकने अपने खद्दर सम्बन्धी विचार भी मुझे भेजनेकी कृपा की है, वह कहता है:

चरखे और खादीको मैं बहुत महत्त्व देता हूँ, किन्तु मुझे खेद है कि मैं उनके सम्बन्ध में बहुत आशान्वित नहीं हूँ और यद्यपि में खादीको अधिक महत्त्व देता हूँ, फिर भी मैं उसके राजनीतिक मूल्यको उतना महत्त्व नहीं देता जितना लोग सामान्यतः सन् १९२१में दिया करते थे। मैं नहीं समझता कि अंग्रेज लोग लंकाशायरके वस्त्र उद्योगके हितोंका खयाल करके ही भारतपर शासन करते हैं। इस सम्बन्धमें दूसरी बातें भी उतनी ही महत्त्वपूर्ण हैं।आपन लॉर्ड रीडिंगको खादीका व्यवहार करनेका जो निमन्त्रण दिया है, उससे तो मेरी दृष्टि में असहयोगके कार्यक्रमका जो थोड़ा-बहुत राजनैतिक महत्त्व रहा था, वह और भी कम हो गया है।

पत्र-लेखक खादीका आर्थिक मूल्य स्वीकार करते हैं, यह भी अच्छी बात है। मैं उनसे और उनकी तरह सोचनेवाले दूसरे लोगों से यह कहता हूँ कि खादीका राजनीतिक मूल्य उसके आर्थिक मूल्यसे ही पैदा होता है। भूखा व्यक्ति कुछ करनेसे पहले अपने पेटकी ज्वालाको शान्त करनेकी बात सोचता है। विश्वामित्र-जैसे तपस्वी ऋषिकी प्रसिद्ध घटना यहाँ उल्लेखनीय है। तपस्यामें उनका कोई सानी नहीं था। किन्तु जब वे तीव्र भूखसे पीड़ित थे तो वे इतने नीचे उतर आये कि उन्होंने निषिद्ध खाद्यकी भी चोरी की। इससे प्रकट होता है कि भूखा आदमी कितना विवश हो जाता है। वह अन्नका एक दाना पानेके लिए अपनी स्वतन्त्रता और सर्वस्व भी बेच देगा। महासागरोंमें यात्रा करते हुए जब नाविक लोग खाद्यके अभावसे पीड़ित होते हैं तो अपनी भूखको शान्त करनेके लिए नर-मांस भक्षणतक का सहारा लेते हुए सुने गये हैं। भारतके करोड़ों लोगोंकी स्थिति भी ऐसी ही है। उनके लिए स्वतन्त्रता, ईश्वर और ऐसे सभी शब्द कोरे शब्द हैं, जिनका कोई भी अर्थ नहीं है। ये शब्द उनको कर्ण-कटु लगते हैं। वे तो उसी मनुष्यका स्वागत करेंगे जो उन्हें अन्नका एक