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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

म्युनिसिपल स्कूलोंमें कताई

अखिल भारतीय चरखा-संघ के सहायक मन्त्रीने विभिन्न म्युनिसिपैलिटियों और जिला बोर्डोको अपने यहाँके स्कूलों में हाथ-कताईकी कैसी प्रगति हो रही है, उसका ब्योरा भेजनेके लिए जो गश्ती-पत्र लिखा था, उसके उत्तरमें केवल तीन पत्र ही प्राप्त हुए हैं। उनमें एक अहमदाबाद म्युनिसिपैलिटीके स्कूल बोर्डके प्रधानका है। उसमें बताया गया है कि:

म्युनिसिपल कन्या-पाठशालाओंके लिए कताईके शिक्षक तैयार करनेके लिए पिछले वर्ष दो कुशल कातनेवालोंकी नियुक्ति की गई थी। शिक्षकोंको ६ महीने तक शिक्षा दी गई और अब म्युनिसिपल पाठशालाओंमें कताईके विषयको अनिवार्य विषय बना देनका विचार है।

शाहाबाद जिला बोर्डके उप-प्रधान लिखते हैं:

१९२५ में ८ प्राथमिक पाठशालाओंमें कताई दाखिल की गई है। इन चुनी गई पाठशालाओंके ८ शिक्षकोंको इस विषयकी खास शिक्षा दी गई है और हरएक स्कूलको पाँच-पाँच चरखे दिये गये हैं। १० से १५ साल तककी उम्रके १३९ लड़के आज इसकी शिक्षा पा रहे हैं।

पत्रमें आगे लिखा है:

अबतक बहुत ही कम कार्य हुआ है, परन्तु अच्छे परिणामकी आशा की जाती है, क्योंकि अब कार्य अधिक व्यवस्थित हो गया है। बोर्डको १,००० रुपयेका जो विशेष अनुदान मिला था उसमें से उसने ३१ जनवरीतक केवल २७४ रुपये ही खर्च किये हैं।

बस्तीके जिला बोर्डके पत्रके अनुसार:

१५ लड़के नियमित रूपसे कातते हैं। १५ चरखे चलते हैं। रोजाना औसतन केवल १ छटाँक (५ तोले) सूत काता जाता है। उस सूतका उपयोग दरी बुनवाने में किया जाता है। अबतक केवल दो दरियाँ बुनी गई हैं और उनका पाठशाला में उपयोग किया जा रहा है। मासिक व्यय २० रुपय होता है। यह शिक्षकका वेतन है। सामान खरीदने में अबतक रु० ८१-२-० खर्च हुए हैं।

मैं आशा करता हूँ कि दूसरे स्कूल बोर्ड भी, यदि उन्होंने अपने पाठ्यक्रममें कताईको भी रखा है तो, उसकी प्रगतिका ब्योरा अवश्य लिख भेजेंगे। मैं इन पृष्ठों में पहले ही लिख चुका हूँ कि पाठशालाओंमें कातनेके लिए तकली ही अधिक सुविधाजनक और फायदेमन्द है। उदाहरणके तौरपर, शिक्षक लोग एक ही समयमें सैकड़ों लड़के-लड़कियोंकी तकली-कताईकी निगरानी कर सकते हैं, परन्तु चरखेपर होनेवाली कताईमें यह असम्भव है।