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१३७. पत्र : बर्रा सत्यनारायणको

साबरमती आश्रम
१७ मार्च, १९२६

प्रिय मित्र,

आपका पत्र मिला। आप मुझे अच्छी तरह याद हैं और जब मैं आपके यहाँ गया था, उस समयकी सुखद स्मृतियाँ भी मेरे मनमें बनी हुई हैं। कृपया बर्मावासी भाइयोंसे कह दीजिये कि संखिया और लौह तत्त्वके इंजेक्शन मैंने जरूर लिये, फिर भी दवाओं और डाक्टरोंके बारेमें मेरे विचार वही हैं जो मेरे लेखोंमें व्यक्त हुए हैं। किसी आदर्श में विश्वास रखना एक बात है, लेकिन उसके अनुसार आचरण करना दूसरी बात है। इस समय तो मित्रगण जो-कुछ कहते रहते हैं, उसका मतलब यही है कि अब मेरे शरीरपर सिर्फ मेरा ही अधिकार नहीं रहा, उन्हें भी इसकी उतनी ही फिक्र है जितनी मुझे हो सकती है और अपनी इस दलीलके सहारे, जो देखने में तो सही लगती है, वे मुझसे यह मनवाते हैं कि मैं स्वयं इस शरीरकी सार-सँभालके लिए जिम्मेदार न्यासियों में से एक हूँ और इस प्रकार इसकी अपेक्षाओंको पूरा करनेका मुझे अधिकार है। अतएव, बर्माके उन सज्जन और उन जैसे अन्य मित्रोंको यदि ऐसा लगता है कि इस विषयमें मेरी कथनी और करनीमें संगति नहीं है तो उसमें कुछ गलत नहीं है। इसलिए उन बर्मावासी मित्रसे कहिए कि जबतक वे मेरी तरह महात्मा नहीं बन जाते तबतक वे दवाओंको हाथ न लगाने और डाक्टरोंको न बुलानेके अपने संकल्पपर दृढ़ रहें, और अगर वे उस सँकरे किन्तु सीधे मार्गपर चलते रहेंगे तो उनका कल्याण ही होगा। आप उन्हें चुपकेसे यह भी बता दें कि यद्यपि में मित्रोंकी चिकनी-चुपड़ीमें आ गया, फिर भी मैंने सिर्फ पाँच दिनोंतक पाँच-पाँच ग्रेन, बल्कि केवल ढाई-ढाई ग्रेनकी खुराकमें कुल ३० ग्रेनसे ज्यादा कुनैन नहीं ली है और संखिया तथा लौह तत्त्वके इंजेक्शन भी प्रति सप्ताह एकके हिसाबसे सिर्फ पाँच ही लिये हैं।

मुझे तो लगता है कि आपकी यह आशा बेकार ही है कि मैं "अब क्या" का उत्तर दे पाऊँगा। जबतक में यह नहीं देखता कि खादी घर-घरमें पहुँच रही है, तबतक में उसका उत्तर नहीं दे सकता। खादी उस हदतक सफल हो, एक यही चीज ऐसी है जिससे यह साबित होगा कि मध्यमवर्गीय लोगोंने अहिंसाके रहस्यको समझ लिया है। जिस दिन यह बात हो जायेगी उस दिन में उसका उत्तर देनेको पूरी तरह तैयार रहूँगा।

हृदयसे आपका,

श्रीयुत बर्रा सत्यनारायण

३५, पीटर्स रोड

रायपेट्टा, मद्रास

अंग्रेजी प्रति (एस० एन० १९३६४) की माइक्रोफिल्मसे।