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१३६. पत्र : डॉ० सत्यपालको

साबरमती आश्रम
१७ मार्च, १९२६

प्रिय डॉ० सत्यपाल,

'फुलवारी' के लिए मेरा यह सन्देश है।

बहादुर सिख लोग अपने अन्दरूनी मसलोंको जितनी जल्दी सुलझाकर अपनी बहादुरीका परिचय देंगे, इससे उनका और भारत दोनोंका उतना ही भला होगा। वीर पुरुष सरल होता है, कुटिल नहीं। वीरता शालीन होती है, उच्छृंखल नहीं। यह उदार होती है, क्षुद्र नहीं। जो वीर हैं, वे सदा क्षमा करनेको तैयार रहते हैं, उनमें प्रतिशोधकी भावना कभी नहीं आती। वे सदा सबके लिए सुरक्षाका सौरभ लुटाते रहते हैं; ऐसा नहीं कि जहाँ गये, सर्वत्र सबको आतंकित करते रहें। वे युद्धको नहीं भड़काते, वे तो शान्तिके[१] समर्थ प्रहरी होते हैं। वे मेल-जोल और सद्भावकी तमाम प्रतिमूर्ति होते हैं। वे झगड़े-टंटे नहीं खड़े किया करते। क्या सिख लोग वीरताकी इन कसौटियोंपर खरे उतरते हैं? अगर नहीं तो वह समय आ गया है, जब उन्हें वैसा करके दिखाना चाहिए। कारण, वे न केवल पंजाबके गुरुद्वारोंको, बल्कि स्वराज्यरूपी महान् भारतीय गुरुद्वारेको मुक्त कराने के लिए प्रतिश्रुत हैं।

हृदयसे आपका,

डॉ० सत्यपाल

ब्रेडले हॉल

लाहौर

अंग्रेजी प्रति (एस० एन० १९३६३) की फोटो-नकलसे।

 
  1. यहाँ साधन-सूत्रमें कुछ चूक दिखाई देती है, जिसे सुधारकर अनुवाद किया गया है।