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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

अस्पृश्यताका रोग वे ही ठीक कर सकते हैं जो अपने विश्वासोंके प्रति ईमानदार होकर, उनके अनुसार आचरण करना जानते हैं। हिन्दू महासभामें जो झगड़ा उठ खड़ा हुआ वह तो आपने देखा ही। लेकिन सारे विरोधोंके बावजूद अस्पृश्यता समाप्त हो रही है और तेजीसे समाप्त हो रही है। इसने भारतीय मानवताको पतित किया है। "अस्पृश्यों" के साथ ऐसा व्यवहार किया जाता है, जैसे वे पशुओंसे भी गये गुजरे हों। उनकी छाया पड़ने से भी ईश्वरका नाम अपवित्र होता है। मैं भारतपर थोपे गये ब्रिटिश तरीकोंकी जितने कड़े शब्दोंमें भर्त्सना करता हूँ, उतने ही कड़े शब्दोंमें, बल्कि उससे भी ज्यादा कड़े शब्दोंमें अस्पृश्यताकी निन्दा करता हूँ। मेरे लिए अस्पृश्यता ब्रिटिश शासनसे भी ज्यादा असह्य वस्तु है। यदि हिन्दू धर्म अस्पृश्यतासे चिपटा रहा तो 'गीता' और 'उपनिषदों' के स्फटिक-जैसे निर्मल सन्देशोंके बावजूद उसका अन्त अवश्यम्भावी है। कारण, उन उपदेशोंका क्या मूल्य रह जाता है जिनको व्यवहारमें झुठलाया जाता है?

प्रश्न : नवयुवक लोग राजनीतिक लाभोंके लिए लड़ने की अपेक्षा यदि समर्पण की भावनासे गाँवोंमें जायें और जनताको सेवामें अपना जीवन लगा दें तो क्या यह ज्यादा बेहतर देश-सेवा नहीं होगी?

उत्तर: अवश्य होगी। लेकिन यह तो एक आदर्श सलाह हुई। विश्वविद्यालयों में हमें जो भी शिक्षा प्राप्त हुई है, उसने हमें या तो क्लर्क बनाया है या मंचोंपर खड़े होकर तकरीरें झाड़नेवाले नेता। अपने विद्यार्थी जीवनमें मैंने चरखा शब्द कभी सुना ही नहीं। मुझे भारतीय या अंग्रेज ऐसा कोई शिक्षक नहीं मिला, जिसने मुझे गाँवोंमें जानेकी बात सिखाई हो। उनकी सारी शिक्षाका मुद्दा सरकारी नौकरीकी आकांक्षा उत्पन्न करना था। उनके लिए आई० सी० एस० सीधे स्वर्गसे उत्पन्न कोई वस्तु थी, और सबसे बड़ी सांसारिक महत्वाकांक्षा थी कौंसिलका सदस्य बन जाना। आज भी मुझे कौंसिलमें जानेको कहा जाता है ताकि वहाँ में सरकारको जनताकी जरूरतें बताऊँ और सदनमें उनपर तकरीरें करूँ? "गाँवोंमें जाओ", ऐसा कोई नहीं कहता। स्कूलोंमें तो जो शिक्षा दी जाती है वह 'गाँव चलो' आन्दोलनके विरूद्ध ही है। मगर इसके बावजूद यह आन्दोलन चल पड़ा है। हमारे नवयुवकोंमें भारतीयताकी भावना खत्म हो गई है। वे गाँवोंकी जिन्दगी के अनभ्यस्त हैं। अगर आप वहाँ अपने हाथमें कुदाल और फावड़ा लेकर नहीं जायेंगे तो आप धूल और संक्रामक रोगोंके शिकार होकर बहुत बुरी मौत मरेंगे। में खुद अपने कुछ कार्यकर्ता मलेरियाके हाथों खो चुका हूँ, हालाँकि उन्हें स्वास्थ्यके नियमोंकी जानकारी थी। गाँवोंकी ओर उन्मुख होनेका आन्दोलन आ गया है, लेकिन उसकी गति धीमी है।

मेरी इच्छा वर्तमान शासन प्रणालीको नष्ट कर देने की है, लेकिन अंग्रेजोंको यहाँसे निकाल बाहर करनेकी नहीं। मेरे कहने का मतलब यह नहीं है कि अंग्रेजोंका इरादा मुझे नुकसान पहुँचानेका था। लेकिन मानव-स्वभाव जो अपराध कर सकता है, उसमें आत्म-प्रवचनां सबसे भयंकर है। और पुराने जमानेकी संगीन अभी भी किसी-न-किसी रूप में विद्यमान है। मैंने उसको डायरवादका नया नाम दिया है। मैं अंग्रेजों-