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कैथरीन मेयोके साथ हुई बातचीतका विवरण

कराया, यहाँतक कि हममें से हजारों लोगोंको अपने अँगूठे काट देने पड़े। यह बात कोई मेरी कल्पनाकी उपज नहीं है। इसे ईस्ट इंडिया कम्पनीके कागज-पत्रोंसे देखा जा सकता है। अब सवाल उठता है कि क्या मैं इसका दोष ब्रिटेनपर लगाता हूँ? निश्चय ही लगाता हूँ। जिन कुत्सितसे-कुत्सित उपायोंकी कल्पना की जा सकती है, उन उपायोंसे हमारे व्यापारपर कब्जा किया गया और फिर अपने मालके लिए बाजार पैदा करने के उद्देश्यसे उस व्यापारको समाप्त ही कर दिया गया। उन्होंने हमें लगभग संगीतके वलपर काम करनेको मजबूर किया। मान लीजिए कि मैं काम करते-करते उकता गया हूँ—उतना उकता गया हूँ जितना हमारे वे बुनकर जिन्होंने और ज्यादा यन्त्रणासे बचनेके लिए थककर अपने अंगूठे काट दिये थे—फिर भी यदि मुझे काम करना पड़ता है तो क्या इसे संगीनका भय नहीं कहेंगे? हमारा कौशल किस प्रकार खतम हुआ, इसका यही इतिहास है।

आप कहती कि चरखा, जो कुछ पीढ़ियों पहलेतक पश्चिमके घर-घरमें चलाया जाता था अब वहाँसे भी गायब हो गया है लेकिन पश्चिमके वे लोग जो चरखा चलाते थे और जिन्होंने अब उसे छोड़ दिया है, स्वतन्त्र लोग थे और अपनी मरजीसे उन्होंने चरखेको छोड़ा। उनके पास चरखेका एक विकल्प था। यहाँ हमारे पास करोड़ों लोगोंके लिए अभी भी कोई वैकल्पिक धन्धा नहीं है। अगर कोई भारतीय किसान साबुन बनानेका कारखाना या टोकरी बनानेका कारखाना खोलना चाहे तो क्या वह खोल सकता है? वह अपना माल कहाँ बेच सकता है ? लेकिन मैं लोगोंको चरखेका रहस्य समझने के लिए राजी करनेकी कोशिश कर रहा हूँ। अपने अन्दरसे थोपी गई विवशता ऊपरसे थोपी गई विवशतासे भिन्न चीज है। मैं अपने लोगोंको सिखाऊँगा कि वे मर भले जायें, लेकिन इस बाहरसे थोपी गई विवशताका प्रतिरोध करें।

कताई-कलाको पुनर्जीवित करनेमें अब कठिनाई है, क्योंकि लोगों में उसकी रुचि समाप्त हो गई है। किन्हीं ऐसे लोगोंको काम करनेकी आदत सिखाना मुश्किल होता है जिनकी सारी आशा मर चुकी हो और जिन्होंने वर्षोंसे कोई काम न किया हो। और हमारे यहाँके धनाढ्य लोग समझते हैं कि अपना धन जोड़ने के सिलसिलेमें उन्होंने जो भी अन्याय किये हैं, उन्हें वे गरीबोंके सामने मुट्ठी-भर चावल फेंककर धो सकते हैं। लेकिन इसका असर यह है कि इस प्रकार वे गरीबोंकी आदतें इतनी बिगाड़ देते हैं कि अगर मैं उन लोगोंके पास एक हाथमें सूत और दूसरे हाथमें पैसे लेकर जाता हूँ तो उसके परिणामस्वरूप मुझे कष्ट झेलना पड़ता है। और मैं किसी प्रकार इन्हें मजबूर नहीं कर सकता, मेरी पीठपर सरकारकी कोई शक्ति नहीं है, जिससे में उन्हें काम करनेको विवश कर सकूँ। इसलिए मेरा काम धीरे-धीरे चलता है। मुझे पग-पगपर प्रयत्न करना पड़ता है। और फिर भी, आज ऐसे हजारों लोग कताई कर रहे हैं जो पिछले वर्ष तक कताई नहीं करते थे। इस क्षेत्रमें जब मुझे सफलता मिल जायेगी तो उसका नतीजा यह होगा कि और भी अनेक गृह-उद्योगोंका विकास होगा। लेकिन इस बीच हमारी मुख्य समस्या हल हो चुकेगी, क्योंकि हमारी सारी कठिनाइयोंकी जड़ विवशताजन्य निठल्लापन है।