पृष्ठ:सम्पूर्ण गाँधी वांग्मय Sampurna Gandhi, vol. 30.pdf/१६६

यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
१३०
सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

होते थे। इन गीतोंमें उस ईश्वरका गुणगान होता था, जो हम सभीका स्रष्टा है। उनके बच्चे इन गीतोंको आत्मसात् कर लेते थे, और इस प्रकार यह प्रथा पीढ़ी-दर-पीढ़ी चलती रही और बच्चोंको यह थातीके रूपमें मिलती गई। हालाँकि उन बच्चों में कोई नफासत नहीं होती थी और न वे पढ़े-लिखे होते थे। लेकिन अब यह सब प्रायः समाप्त हो चुका है। माँ गरीबीके भारसे कराह रही है, उसका मन निराशामें डूबा हुआ है। उसके पास दूध नहीं है। बच्चा जब माँका दूध छोड़ने लायक होता है तब माँ के पास उसे खिलानेको सिवा मामूली मोटे अनाजकी पेजके कुछ नहीं होता, जिससे बच्चेकी आँतें खराब हो जाती हैं।

इन करोड़ों लोगोंसे मैं क्या करनेको कहूँ? यह कहूँ कि वे अपने खेतोंको छोड़कर अन्यत्र चले जायें? क्या यह कहूँ कि वे अपने बच्चोंको मार डालें? या मैं उनकी स्थितिको सुधारने के लिए जो धन्धा उन्हें दे सकता हूँ, वह दूँ?

मैं उनके पास आशाका सन्देश—चरखा—लेकर जाता हूँ और कहता हूँ, "आपके साथ-साथ मैं भी कताई करता हूँ और मैं आपको अपने सूतके एवजमें चन्द पैसे देता हूँ। जो सूत आपने अपने घरोंमें बैठकर, फुरसत के समय और जब मन हुआ उस समय काता है, मैं उस सूतको आपसे खरीदता हूँ" मेरी यह बात सुनकर उस माँकी आँखोंमें आशाकी झलक कौंध जाती है। पाँच सप्ताहकी अवधिके अन्तमें, जिसके दौरान उसे नियमित रूपसे सहायता और सहयोग प्राप्त होता रहता है, मैं उसकी आँखों में चमक देखता हूँ। वह कहती है, "अब मैं अपने बच्चेके लिए दूध खरीद सकती हूँ।" और अगर उसे यह काम नियमित रूपसे मिलता रहे तो वह फिरसे एक सुखी घर बना सकती है। इस एक व्यक्तिको लेकर दिये गये दृष्टान्तको आप ३० करोड़ लोगोंके ऊपर लागू करके देखिए तो आपको उस चीजका काफी सही अन्दाजा मिल जायेगा, जिसकी मैं आशा कर रहा हूँ म।

अंग्रेज इतिहासकार सर विलियम हंटरके बयानसे पहली बार पता चला कि जनसाधारणको गरीबी कम होनेके बजाय बराबर बढ़ रही है। जिन गाँवोंमें में गया हूँ, उनसे यह सिद्ध होता है। ईस्ट इंडिया कम्पनीके कागजपत्रोंसे यही बात दिखती है। उन दिनों हम माल बाहर भेजा करते थे, हम शोषक नहीं थे। हम अपना माल ईमानदारी के साथ दूसरोंतक पहुँचाते थे। जो लोग हमारा माल न खरीदें, उन्हें दण्डित करने के लिए हमने कोई तोप-सज्जित नौकाएँ नहीं रख छोड़ी थीं। हम बाहरके देशोंको जो कपड़ा भेजते थे, वैसा कपड़ा दुनियामें शायद कहीं नहीं बनता था। हम हीरे सोने और मसालोंका निर्यात करते थे। हमारी धरती में पर्याप्त कच्चा लोहा होता था। हमारे पास अपने यहाँके बने और कभी धुंधले न पड़नेवाले रंग थे। ये सारी चीजें अब लुप्त हो चुकी हैं। ढाकाकी मलमलका तो जिक्र ही क्या, जिससे ओसकी चादरका भ्रम होता था! मैं आज वैसी मलमलका उत्पादन नहीं कर सकता, लेकिन आगे कर सकनेकी उम्मीद रखता हूँ।

ईस्ट इंडिया कम्पनी भारत में खरीदारी करनेकी गरजसे आई थी, और अन्तमें वह यहाँ विक्रेताके रूपमें जम गई। उसने हमें अपने अँगूठे काट डालनेके लिए मजबूर किया। वह हमारे सीनेपर सवार हो गई और हमसे अपनी मर्जी के खिलाफ काम