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१२७. पत्र : ब्रजकृष्ण चाँदीवालाको

रविवार, १४ [मार्च, १९२६][१]

भाई ब्रजकृष्ण,

तुम्हारा खत मिला। तुम्हारा दुःख में समज सकता हूँ। कई दर्द ऐसे रहते हैं जिसकी औषधि समय ही बता देता है। और हमारे दरमियान शांतिका ही सेवन करना चाहिए। यदि तुम्हारा निश्चय अचल है, जबतक कुछ भी कार्यक्षेत्र नहीं चुन लिया है और स्वतंत्र आजीविकाका प्रबंध नहीं हुआ है तबतक शादी होनेवाली नहीं है तो विनयसे और साथसाथ दृढ़तासे अपना निश्चय बताने से माताजी और बडिल भाई दोनों राजी हो जाएगे। यदि तुम्हारा चित इतना स्थिर न हो और भीतरमें शादीकी भी कुछ इच्छा भरी हो तब बडिलोंका सुन लेना वही अच्छा है। धनिक कुटुंबमें विधुरको पुनर्विवाहसे बचते रहना बड़ा कठिन काम है इसमें शक नहीं। वही आदमी बच सकता है जिसको पुनर्विवाह करना बड़ा दुःखका कारण होगा। इसलिये मेरी तो येह सलाह है कि एकान्तमें बैठकर शांतचितसे विचारना और उसके बाद हृदय जो कुछ भी कहे इससे अनुकूल चलना। मैं केवल मार्ग ही बता सकता हूं। परन्तु आखरम निश्चय तो तुम्हारा ही हो सकता है। और निश्चय करनेके समय मेरी क्या और दूसरोंकी क्या सब रायोंको भूल जाना और दिल जो कहे वही निर्भय होकर करना—लड़कीको ईश्वर शीघ्रतासे आरोग्यवती करे और तुमको ईश्वर शांति दे।

बापुके आशीर्वाद

मूल पत्र: (जी० एनं० २३५० तथा एस० एन० १९८६६ एम) की फोटो-नकलसे।

१२८. पत्र : मंगलभाई शा० पंचालको

१४ मार्च, १९२६

भाई मंगलभाई,

आपका पत्र मिला। उत्तर देनेमें देर हुई, आशा है आप उसके लिए क्षमा करेंगे। आपकी खातिर साढ़े छः बजे 'भक्तराजकी यात्रा'[२] पढ़ना मुझे अच्छा तो लगेगा, परन्तु सब स्त्री-पुरुषों तथा विद्यार्थियोंके लिए यह समय अनुकूल न होगा; इसलिए मैं लाचार हूँ। फिर, समस्त धार्मिक वाचनका सार तो यही है कि हम अपने-अपने कर्त्तव्योंके पालनमें दृढ़ हों। जो इतना समझते ह यदि वे ऐसी कथा न सुनें

 
  1. इसी पत्र (एस० एन० १९८६६) की माइक्रोफिल्मसे।
  2. अंग्रेजीकी प्रसिद्ध धार्मिक पुस्तक, पिलग्रिम्स प्रोग्रेस।