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१२३. अविश्वास या उचित सावधानी ?

एक चरखा-प्रेमी दुःखी होकर निम्न विचार प्रकट करते हैं:[१]

लेकिन मुझे लगता है, चरखा संघके सुझाव दुःखका कोई कारण नहीं है। कितने सदस्योंने सूत वापस माँगा है, यह प्रश्न अप्रस्तुत है। किसीने माँगा है अथवा नहीं, यह प्रश्न उठ सकता है। इसका उत्तर 'नवजीवन' की टिप्पणीमें ही मिल जाता है। जबतक सूत वापस भेजा ही न गया हो तबतक उसी सुतको वापस कौन भेज सकता है? लेकिन यदि अविश्वासके कारणोंकी खोज करनी हो तो वे हमें पर्याप्त मात्रामें मिल जायेंगे। कांग्रेसका सदस्य बननेकी खातिर अनेक लोगोंने उसी सूतको बार-बार भेजा था। इतना ही नहीं, बल्कि कांग्रेस समितियोंने स्वयं ही खुले रूपसे इसी सूतका बार-बार उपयोग किया था। लेकिन यदि अमुक सावधानियाँ बरती जाती हैं, तो ऐसा नहीं कहा जा सकता कि उसका कारण अविश्वास है, और वैसा अनुमान तो कदापि नहीं निकालना चाहिए। माता-पिता बच्चोंपर अमुक प्रतिबन्ध लगाते हैं, सो अविश्वासके कारण नहीं, बल्कि इस ज्ञानके कारण कि मनुष्य-जातिके स्वभावमें सावधानीके अभावमें मन्दता आ जाती है। इसी नियमके अनुसार संस्थाएँ सदस्योंके बचावके लिए प्रतिबन्ध लगाती हैं और इसी नियमके अनुसार मनुष्य स्वयं भी प्रलोभनोंसे अपना बचाव करनेके लिए उन प्रतिबन्धोंकी रचना करता है, जिन्हें हम व्रत कहते हैं। दुःखकी बात तो यह है कि संघमें सम्मिलित होनेका लोभ लोगोंमें नहीं है। लोभ नहीं है, यानी, उनके मनमें यह भाव छुपा हुआ है कि संघमें सम्मिलित होनेसे क्या लाभ। यदि ऐसा न होता तो चरखा संघ द्वारा आयोजित इस निःस्वार्थ यज्ञमें लाखों स्त्री-पुरुष सूतकी आहुति क्यों न देते? लेकिन यदि अभीतक जनताको ऐसा लोभ नहीं लगा है तो क्या संचालकोंको भी उदासीन रहना चाहिए? क्या संचालकोंको भी संघका महत्त्व कम कर देना चाहिए? जहाँ व्यक्तिगत अर्थ-लाभ नहीं है, वहाँ कोई लोभ ही नहीं है, इस भ्रम-जालमें से हमें निकल जाना चाहिए। यदि चरखा-संघके सदस्य उसका मूल्य ऊँचा आँकेंगे तो अन्तमें जगत उसे स्वीकार करेगा, क्योंकि उसका उद्देश्य धार्मिक है। माताको अपना बच्चा सब बच्चोंकी अपेक्षा अधिक सुन्दर लगता है। अपनी संस्थाके प्रति संचालकों और समझदार सदस्योंका वैसा ही भाव होना चाहिए, फिर भले ही जगत संचालकोंकी और सदस्योंकी और इसलिए

उनकी संस्थाकी कीमत दो दमड़ी आँके। जिसने रामनामका उच्चारण सबसे पहले किया होगा, यदि वह वैसा करते हुए लज्जित हुआ होता अथवा उसने उसकी कीमत

 
  1. यहाँ पत्रका अनुवाद नहीं दिया गया है। पत्र-लेखकने नवजोवनके ७-३-१९२६ के अंक में प्रकाशित एक टिप्पणी (देखिए "टिप्पणियाँ", ४-३-१९२६ के अन्तर्गत उपशीर्षक 'स्वयं कातनेवालोंके लिए') पर खेद प्रकट किया था और पूछा था कि अधिकारियोंके मनमें अविश्वासका क्या कारण है, जिससे उन्होंने सूतको ब्लीच करनेका निश्चय किया है।