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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

पूरी बात जाने बिना प्रथम दृष्टिमें इस विवाहके सम्बन्धमें मुझे जो तत्त्व 'अनुचित जान' पड़े हैं, मैंने आपको वे ही बताये हैं।

श्री कस्तूरचन्द सूरचन्द मारफतिया

साबरकांठा छात्रावास

मम्मादेवी, बम्बई

गुजराती प्रति (एस० एन० १९८६०) की माइक्रोफिल्मसे।

१२१. पत्र : आनन्दप्रियको

साबरमती
१३ मार्च, १९२६

भाई आनन्दप्रियजी,

आपका पत्र मिला। मैं हैन्डबिल पढ़ गया। बहुत ही गंदा है। उसमें कोई शक नहीं है। परन्तु मेरी सलाह है कि इसपर भी कुछ खयाल न कीया जाय। ऐसी बातोंका उत्तर देने से उनको थोडासा भी महत्व मिलता है। और कई लोग केवल जाहेरमें आनेके लिये ऐसी बातें लिखते हैं। प्रसंगवशात में कुछ बात साफ करना होगा तो कर लूंगा।

कारेली बाग
बहोदरा

मूल प्रति (एस० एन० १९८६१) की माइक्रोफिल्मसे।

१२२. पत्र : शुकदेव प्रसादसिंहको

साबरमती
१३ मार्च, १९२६

भाई शुकदेव प्रसादसिंह,

आपका पत्र मिला। प्रतिज्ञा हमेशा कोई सत्कार्यके लिये ही हो सकती है। कुकर्म करनेकी प्रतिज्ञा हो नहीं सकती है। अगर कोई अज्ञानवश होकर लेवे तो उस प्रतिज्ञा [को] तोड़ना उसका धर्म हो जाता है। जैसे कि कोई मनुष्य व्यभिचार करनेकी प्रतिज्ञा लेवे वह शुद्धि पानेसे ऐसे कुकर्मसे अवश्य हट जाये। न हटनेसे पातकी बनेगा।

आपका,
मोहनदास गांधी

मूल पत्र (एस० एन० १९८६२) को माइक्रोफिल्मसे।