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११४. सन्देश: 'हिन्दुस्तानी' को

[१२ मार्च, १९२६]

मुझसे जो कोई भी अपने अखबारके लिए सन्देश माँगता है, वह यदि चरखा और खादीका प्रेमी नहीं है तो बड़ी भारी भूल करता है, क्योंकि मैं इनके अलावा और किसी चीजके बारेमें सोच ही नहीं सकता, लिखना तो दूरकी बात है। अपने चारों तरफ मुझे दुःख और मतभेद, पराजय और तज्जनित निराशा ही दिखाई दे रही है। राहतकी एक ही चीज मुझे दिखाई देती है; वह है चरखा चलाना, और इसीलिए में इसकी सिफारिश करता हूँ। यह सोचकर कि इसके द्वारा मैं देशके छोटेसे-छोटे व्यक्तिसे अटूट सम्बन्ध स्थापित करता हूँ, मुझे शान्ति मिलती है, आनन्द मिलता है। चरखे द्वारा और अपने परिश्रम द्वारा में देशके लिए वांछित घनमें कुछ वृद्धि करता हूँ। इसके जरिये मैं नंगे लोगोंको वस्त्र देनेमें अपना हिस्सा, चाहे वह कितना ही छोटा हो, अदा करता हूँ और मैं देशके गरीबसे-गरीब व्यक्तिको भी अपनी जीविकाके लिए भीख माँगनेके बजाय परिश्रम करनेके लिए आमन्त्रित करता हूँ।

चरखा सभी विवादों और मतभेदोंसे परे है। यह समान रूपसे सभी भारतीयोंका हैं या होना चाहिए। इसलिए यदि 'हिन्दुस्तानी' का उद्देश्य देशका राजनीतिक उत्थान है और इसके पाठक इसके उद्देश्यकी कद्र करते हैं, तो सबसे अच्छा काम वे यही कर सकते हैं कि प्रतिदिन कमसे-कम आधा घंटा चरखा चलानेमें लगायें और विदेशी अथवा मिलके बने कपड़ेका बहिष्कार करें और केवल हाथकती, हाथ-बुनी खादी ही पहने तथा इस प्रकार खादीका जो भी दाम दें, उसे देशके गरीबसे-गरीब व्यक्तिमें वितरित करें।

अंग्रेजी प्रति (एस० एन० १९३५८) की माइक्रोफिल्मसे।

११५. पत्र: शार्दूलसिंह कवीसरको

साबरमती आश्रम
१२ मार्च, १९२६

प्रिय मित्र,

आपके दो पत्र मिले। सामान्य पत्रके उत्तरमें तो साथमें 'हिन्दुस्तानी' के लिए अपना लेख या सन्देश, आप जो भी कहें, भेज रहा हूँ।

आपका दूसरा पत्र पढ़कर मन बहुत खिन्न हो जाता है। सिवाय इसके कि इस क्रोधके तूफानको खुलकर खेलने और खतम होने दिया जाये, और किया ही क्या जा सकता है? और हम लोग, जो इन झगड़ों और इस स्वार्थ-लिप्साकी बुराईको समझते है, अगर इस आघातको झेल लें तो अन्तमें सब ठीक ही होगा।

 
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