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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

जन-संख्याका पाँचवाँ भाग नहीं हैं, वरन् पाँचमें से चार भाग हैं, और यदि 'लिबरेटर' गाँवोंको शहरोंके प्रलोभनोंसे मुक्त करना चाहता है तो मैं कहूँगा कि चरखेके बिना यह काम असम्भव है।

अंग्रेजी प्रति (एस० एन० १९३५७) की माइक्रोफिल्मसे।

११३. पत्र: चुनीलालको

आश्रम
११ मार्च, १९२६

भाई चुनीलालजी,

आपका पत्र मिला है। और आपकी योजना भी मैंने देख ली है। योजनामें कुछ भी शक्ति नहि देखता हूँ। गोकशी केवल शहरोंमें हि होती है, और उसका रोकनेका तरीका एकहि हो सकता है—कसाइयोंके साथ पशु मोलनेमें मुकाबला करना। वह मुकाबला तभी हो सकता है, जब जितने पशु हम खरीद लें उसपर जो खर्च होगा वह हम निकाल सकें, और खर्च निकालना असम्भवित है, जबतक हम डेरी न निकालें और धार्मिक दृष्टिसे मृत गाइ-बेलके चमड़े इत्यादिका व्यापार न करें। जिस तरहसे गायके दूध पीनेसे हम गोमांस भक्षणसे बच जाते हैं, इस कारण दूधको पवित्र समझते हैं, ठीक उसी तरहसे गाय बेलको कलसे बचाने के कारण हमको मृत जानवरके चमड़े-हड्डी इत्यादिका उपयोग धार्मिक समजकर करना होगा। अब हम देख सकते हैं कि हमारे नजदीक दो बातें उपस्थित होती हैं; एक, डेरी और टेनरीका शास्त्र समजनेवालोंकी सहाय लेना; दूसरा, मृत पशुके चमड़े-हड्डी इत्यादिका व्यापारको अज्ञानवश होकर लोक दोषित समझते हैं उसी कार्यके ज्ञान द्वारा निर्दोष तो क्या परंतु पुण्यकार्य समझाना। यदि मेरा अभिप्राय सही है तो गौशाला और पिंजरापोलको भी हम इस तरहसे चलावें जिससे हमारी गोशालायें और पिंजरापोल डेरी और टेनरी बन जाय।

गोरक्षाका कार्य आजकल नीरस हो गया है उसका सबब तो यह है कि लाखों रुपयेका चंदा गोरक्षाके नामसे होते हुए भी संख्याकी दृष्टिसे अबतक हम एक भी गाय बचा नहि सके हैं। परंतु गोरक्षाशास्त्रके ज्ञानके अभावके कारण गाय सस्ती हो गई है, जिसे उसका ज्यादह बघ होता है।

इस पत्रको अधिवेशनके समय आप पढ़ना चाहें तो पढ़ सकते हैं।

मूल प्रति (एस० एन० १२३९८) की फोटो-नकलसे।