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१११. पत्र: सुरेश बाबूको

साबरमती आश्रम
११ मार्च, १९२६

प्रिय सुरेश बाबू,

मैं आपको तार दे चुका था, उसके बाद आपका पत्र मिला । कदाचित् आपको यहाँ आनेका समय न मिल सके, इसलिए मैं आपके पत्रके जवाबमें कहना चाहता हूँ कि सन्तोष न होनेतक अनुबन्ध-पत्र भरनेमें देर करके आपने गलती की।

जिन कठिनाइयोंका आपने उल्लेख किया है, उनके सम्बन्ध में अब भी आपको यही सलाह दूँगा पहले आप अनुबन्ध-पत्र भर दें और उसके बाद ही अपने उठाये गये मुद्दोंपर मन्त्रीसे विचार करनेको कहें। मैं ऐसा इसलिए कहता हूँ कि मेरी व्यक्तिगत इच्छाके आधारपर ही औपचारिक कार्रवाई पूरी किये बिना आपको पैसा भेज दिया गया था। वास्तवमें ऐसा करना उन नियमोंसे अलग हटना था, जिनपर अखिल भारतीय चरखा संघ-जैसी एक बड़ी संस्थाको सचमुच चलना चाहिए।

यदि आप यहाँ आ सकें तो आपने जिन बातोंका उल्लेख किया है, उनमें से अधिकांश सन्तोष जनक ढंगसे तय की जा सकती हैं। मैं तो उम्मीद कर रहा था कि आप कविवरकी[१] आश्रम-यात्राके बारेमें विस्तारसे लिखेंगे।

हृदयसे आपका,

अंग्रेजी प्रति (एस० एन० १९३५६) की माइक्रोफिल्मसे।

११२. सन्देश: 'लिबरेटर' को

साबरमती आश्रम
११ मार्च, १९२६

'लिबरेटर' के उद्देश्य बहुत ऊँचे हैं। मेरे सामने जो विज्ञप्ति है, यदि उसमें गिनाये गये कार्योंमें से एकको भी करनेमें वह सफल हो जाता है तो स्वामी श्रद्धानन्दने अपनी इस नवीनतम रचना—इस पत्र—के लिए जो नाम चुना है, वह सर्वथा उपयुक्त सिद्ध होगा।

मेरे सामने जो विज्ञप्ति है, उसमें दलित वर्गोंके उद्धारपर जोर दिया गया है, और यह उचित भी है, लेकिन और भी ऐसे अनेक वर्ग हैं, जो हमारी विदेशी वस्त्र पहननेकी मूढ़तापूर्ण इच्छाके कारण दलित अवस्थामें पड़े हुए हैं। और वे भारतकी

  1. रवीन्द्रनाथ ठाकुर।