पृष्ठ:सम्पूर्ण गाँधी वांग्मय Sampurna Gandhi, vol. 3.pdf/५३२

यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

४९० सम्पूर्ण गांधी वाङमय उसमें भारत सरकारने जो रुख ग्रहण किया है तथा उपनिवेश मन्त्रीने जिसका समर्थन किया है, उसके प्रति सख्त विरोध करना मैं अपना कर्तव्य समझता हूँ। हम स्वीकार करते हैं कि भारतकी भाँति हम भी ब्रिटिश साम्राज्यके एक अंग हैं, परन्तु फिर भी इस उपनिवेशके गोरे निवासियोंके हितोंका खयाल हमें रखना ही पड़ेगा। भारतकी जनसंख्या बहुत अधिक है। उसके निवासियोंको हमने एक श्रम बाजार दिया है, जहाँ वे अपना श्रम बेच सकते हैं। अपनी शर्तकी अवधि पूरी होने पर जब गिरमिटिया स्वदेश लौटेंगे तब उनके पास उनकी मजदूरीका कुछ धन होगा ही । भारतके लिए यह क्या कम लाभ है ? लेकिन इस देशके निवासियोंको यह निश्चय करनेका हक है कि वे यहाँ भारतीय व्यापारियोंकी भीड़ होने दें या नहीं, उन्हें खुली होड़ करने और यहाँ बसने दें या नहीं। आगे-पीछे हमें आशा है यह देश विशुद्ध रूपसे गोरोंका हो जायेगा । हम अपने साथी भारतीय प्रजाजनोंको बाजारोंमें व्यापार करनेका अधिकार देते हैं। हमारा खयाल है कि इस तरह सरकारने एक उदारतापूर्ण जवाबमें हम यह तो आशा भी नहीं कर सकते कि भारत बन जायेगी कि साम्राज्यके हितमें, जिसका कि भारत खुद जिम्मेदारियोंको अदा करनेमें हमारी मदद करनेसे इनकार कर देगी। दक्षिण आफ्रिकाके युद्धके खर्चमें तीन करोड़ पौंडकी सहायता देनेका हम वचन दे चुके हैं। इसका ब्याज आखिर हम अपनी औद्योगिक समृद्धिके परिणामोंमें से ही अदा कर सकते हैं । [ अंग्रेजीसे ] इंडियन ओपिनियन, २४-९-१९०३ रियायत की है। इसके सरकार इतनी अदूरदर्शी भी एक अंग है, अंगीकृत ३४९. विक्रेता-परवाना अधिनियम पुनरुज्जीवित : ४ कथनी और करनी - श्री केसलरने सारी कलई खोल दी और इसका वास्तविक कारण बता दिया कि आखिर ट्रान्सवालके खान- उद्योगके मालिक एशियासे मजदूर लानेपर क्यों तुले बैठे हैं। अब यह रहस्य खुल गया है कि लाभदायक दरोंपर गोरे मजदूर मिल नहीं सकते - - प्रश्न यह नहीं है । असली प्रश्न तो यह है कि गोरे मजदूर आयेंगे तो आगे चलकर वे मालिकोंपर हावी हो जायेंगे; मजदूरी, कामका समय और दूसरी बहुत-सी बातोंके बारेमें मालिकोंके सामने अपनी शर्तें रखने लगेंगे और ट्रान्सवालमें एक जोरदार राजनीतिक शक्ति बन बैठेंगे। यह तो वही पुरानी बात हुई । शक्तिशाली चाहते हैं कि सारी सत्ता उन्हींके हाथोंमें बनी रहे और उनके प्रतिस्पर्धी लोग क्षेत्रमें न आने पायें। इन खान-मालिकोंको भी वही भय संचालित कर रहा है, जिससे प्रेरित होकर उत्तरदायी शासन मिलते वक्त नेटालके विधान-निर्माता काम कर रहे थे। उन्होंने तब सबसे पहले ब्रिटिश भारतीयोंका मुँह बन्द करनेके लिए उनका मताधिकार छीननेका कदम उठाया था। इसपर जब ब्रिटिश भारतीयोंने न्यायकी दरख्वास्त की तो सर जॉन रॉबिन्सनने उसके जवाब में कहा था, और उन्होंने जो कहा था उसके एक-एक शब्दको वे मानते भी थे कि : ब्रिटिश १. देखिए खण्ड १, पृष्ठ ९८ । Gandhi Heritage Portal