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ट्रान्सवालमें मजदूरोंका सवाल - • जैसे सन्दूक ४८५ उपयोग करनेकी आजादी नहीं होगी; अर्थात्, वे स्वतन्त्र रूपसे दूसरा कोई काम नहीं कर सकेंगे । उनके हाथोंमें तो केवल फावड़े और बेलचे होंगे और वे उन्हींका इस्तेमाल कर सकेंगे । अबतक हम यही सोचनेके अभ्यस्त रहे हैं कि जब एक मनुष्य दूसरे मनुष्यके सम्पर्क में आयेगा तब उसे अपनी स्वाभाविक शक्तियोंका खुलकर उपयोग करनेका अवसर मिलेगा; परन्तु गरीब चीनी यह कुछ नहीं कर सकेंगे । यहाँ पहुँचनेपर वे देखेंगे कि कारीगरीका - आदि बनानेका दूसरा काम करके वे एक घण्टेमें उतना ही कमा सकते हैं, जितना खान मजदूरोंके रूपमें आठ घण्टे में | उन्हें अपनी बुद्धि कुण्ठित करनी होगी और अकुशल मजदूर रहकर संतोष करना होगा। हम इसे शुद्ध अन्याय मानते हैं, जिसका कोई समर्थन नहीं हो सकता। सबसे अधिक दयनीय बात तो यह है कि इतनी अस्वाभाविक परिस्थिति निर्माण कर देनेपर यदि चीनी, जिन्हें उपनिवेशी 'काफिर' कहते हैं, कहीं नीतिका भंग कर बैठें, अपना जुआ उतार फेंकनेकी सभी उलटी- सीधी तरकीबें करें और अपने पूर्वजोंसे पाई कला और बुद्धिका सीधे या टेढ़े-मेढ़े ढंगसे उपयोग करनेका यत्न करें, तो ये उपनिवेशी उनकी शिकायत करेंगे ही। निःसन्देह खान - उद्योग ट्रान्सवालका मुख्य आधार है, परन्तु उपनिवेशी शायद उसका विकास बड़ी महँगी कीमत देकर कर रहे हैं। बिलकुल यह भी नहीं कहा जाता कि बाहरके मजदूर नहीं आयेंगे तो यहाँका काम ठप्प हो जायेगा । कुछ महीने पहले बॉक्सबर्गमें एक बड़ी सभा हुई थी। इस सभामें सर जॉर्ज फेरारने इन खानोंकी तुलना 'सोने-चाँदीकी तिजोरियों" से की थी। (उन्होंने कहा था कि इनका पूरा-पूरा लाभ उठानेके लिए एशियासे बेगारी मजदूर लाने चाहिए । परन्तु फेरार साहबकी कलापूर्ण वक्तृता और प्रभावशाली शक्तिके बावजूद सभामें उनका प्रस्ताव भारी बहु- मतसे रद हो गया)। मजदूरोंकी कमीसे तिजोरियोंके अन्दर बन्द पड़ा सोना जंग तो नहीं खा रहा है। तब इनमें से कुछ तिजोरियाँ आनेवाली पुश्तोंके उपयोगके लिए बन्द क्यों न छोड़ दी जायें ? इतनी सारी चीजोंका बलिदान देकर उन्हें कुछ इने-गिने लोगोंकी स्वार्थ-साधनाके लिए जबरदस्ती खोलनेका प्रयास क्यों किया जाये ? हम जानते हैं हमारा यह सारा कथन बहुत ही महत्त्वहीन अरण्यरोदन - मात्र है। श्वेत-संघके सारे साधन इन करोड़पतियोंके आगे बेकार साबित हो रहे हैं, जो दो लाख चीनी मजदूर ट्रान्सवालमें लानेका निश्चय कर चुके हैं। परन्तु यदि साफ कहें तो अभीतक इन श्वेत-संघी भले आदमियोंके विरोधका आधार बहुत नीचा, अर्थात्, केवल स्वार्थपरायणता रहा है। क्या हम इनसे अनुरोध करें कि ये अपने प्रचारके ढंगमें कुछ नई बात जोड़ें और असहाय एवं मूक लोगोंका पक्ष - समर्थन कर अपनी स्थिति मजबूत करें ? अपनी बातको हम जरा साफ कर दें। हमारे इस अनुरोधसे यह न समझा जाये कि हम एशियाइयोंके प्रवेशके लिए उपनिवेशके दरवाजे पूरी तरह खोल देनेकी वकालत कर रहे हैं। हम पहले कह चुके हैं और यहाँ फिर दुहरा देते हैं कि उचित मर्यादाओंके भीतर उनके प्रवेशपर नियन्त्रण लगाना बिलकुल मुनासिब है । जातिकी शुद्धताकी रक्षाको हम भी उतना ही चाहते हैं, जितना कि हमारी समझसे वे चाहते हैं । परन्तु साथ ही हमारा यह भी विश्वास है कि इन दोनों पक्षोंके प्रिय हितकी सिद्धि तब अधिक अच्छी तरह होगी जब केवल एक जातिकी ही नहीं, बल्कि सभी जातियोंकी शुद्धताका ध्यान समानरूपसे रखा जायेगा । हमारा यह भी विश्वास है कि दक्षिण आफ्रिकामें प्रभुता गोरी जातिके हाथोंमें ही रहेगी और यह भी कि श्वेत-संघके सदस्य अगर नीतिकी मजबूत चट्टानपर खड़े रहेंगे तो अपने अभीष्ट उद्देश्यकी ओर ही बढ़ेंगे। वे कह सकते हैं: “ ये जितने भी निर्बन्ध लगानेकी बातें हो रही हैं, वे सब लगाये जा सकते हैं और जिन चीनियोंको यहाँ लानेका विचार हो रहा है, उन्हें किसी कठिनाईके बिना वापस भी भेज दिया जा सकता है। Gandhi Heritage Portal