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विक्रेता परवाना अधिनियम पुनरुज्जीवित : ३ ४८१ आशा उन्हें केवल एक जगहसे थी, परन्तु वह भी उनसे सम्राट्की न्याय परिषदके न्यायाधीशोंने छीन ली है । विक्रेता-परवाना अधिनियमके बारेमें सन् १८९८ में उपर्युक्त आवेदन ब्रिटिश भारतीय व्यापारियोंने लिखा था और श्री चेम्बरलेनको भेजा था। अब इस वर्ष इतिहासका पुनरावर्तन हुआ है; अतः जो विनती भारतीय व्यापारियोंने श्री चेम्बरलेनसे की थी, वही अब पिछले तीन हफ्तोंकी घटनाओंको देखकर उपनिवेशके विधान-निर्माताओंसे की जा सकती है । उपनिवेशियोंकी इच्छाका सम्मान करने, उन्हें राजी करने और उनकी सहमति प्राप्त करनेकी खातिर हम यह बात पहले ही मंजूर करके रास्ता साफ कर दें कि विक्रेता- परवानोंपर कुछ नियन्त्रण अवश्य लगा दिये जाने चाहिए। श्री एलिस ब्राउनने अपनी प्रसिद्ध बाजार सूचना में सफाईकी कमी और अनुचित होड़का जिक्र किया है। यह अनुचित होड़ उन लोगोंकी तरफसे होती है, जिनका रहन-सहन यूरोपीय व्यापारियोंकी भाँति खर्चीला नहीं है । केवल दलीलकी खातिर हम मान लेते हैं कि इनके बीच इस तरहकी अनुचित होड़ है, और यह भी कि, ब्रिटिश भारतीयोंमें बहुत-कुछ सफाईकी कमी है। हम यह भी मान लेते हैं कि इन दोनों बुराइयोंको कानूनके द्वारा दूर कर दिया जाना चाहिए। इस तरह इस बात में उपनिवेशके यूरोपीयों और भारतीयोंके बीच समझौता हो जानेके बाद अब सवाल यह रह जाता है कि हम अपने उद्देश्यकी प्राप्ति कैसे करें ? सन् १८९७ में यूरोपीयोंने इस प्रश्नका जवाब विक्रेता परवानाअधिनियम बनाकर दिया था। इसके बाद कुछ समय बीत गया। इसमें यह अनुभव किया गया कि कानून बहुत सख्त बन गया है; इसलिए विवेक, बुद्धि और न्यायकी भावनाका सहारा लेकर उसका अमल नरम बना दिया गया । किन्तु अब नई प्रतिक्रिया शुरू हुई है और अगर न्यूकैसिल और डर्बनकी नगर परिषदोंके अभी हालके निर्णय उसके पूर्व-लक्षण हैं तो मानना होगा कि, अब इस कानूनका पूरी तरहसे अमल होगा और उसमें न्याय और अन्यायका भी ध्यान न रहेगा। इसके जवाब में ब्रिटिश भारतीयोंने जो पक्ष ग्रहण किया है वह हमारी विनीत सम्मतिमें लाजवाब है । यह कानून अपने वर्तमान रूपमें प्रत्यक्षतः अन्यायपूर्ण है। उपनिवेशके साधारण न्यायालयोंके क्षेत्रसे उसे बाहर रखकर ब्रिटिश संविधानके मूलभूत सिद्धान्तोंपर ही कुठाराघात किया गया है। यह कानून उन लोगोंके हाथोंमें असाधारण सत्ता सौंप देता है, जिनका स्वार्थ परवाना माँगने- वाले अर्जदारोंके स्वार्थोंसे टकराता है, और जिनके सामने अर्जदार पेश हो सकते हैं। वह इन लोगोंको ऐसे (परवाना जारी करनेवाले) अधिकारीकी नियुक्तिका अधिकार भी देता है, जो इन गरीब अर्जदारोंकी आजीविका का मालिक-सा बन जाता है और जो निष्पक्ष, निःस्वार्थ और निर्भय होकर अपना फैसला देनेमें असमर्थ होता है । फिर ब्रिटिश भारतीय तो कहते हैं : परवाना अधिनियम में से ये सब बातें हटा दीजिए, नगर परिषदों तथा स्थानिक निकायों (लोकल बोर्ड) की सत्ताकी यथासम्भव साफ-साफ परिभाषा कर दीजिए। गन्दगीका इलाज भी सख्ती से कीजिए । आग्रह रखिए कि मकान अच्छे और सुविधाजनक हों, अर्थात् उनमें रहने के कमरे अलग हों और दूकानें अलग; तथा हिसाब भी व्यवस्थित रखे जानेपर जोर दीजिए -- वगैरह । परन्तु ये सब आवश्यकताएँ पूरी हो जाने के बाद अर्जदारके दिलमें इतना तो विश्वास उत्पन्न होने दीजिए कि उसे परवाना मिल जायेगा, अर्थात्, नया मिल जायेगा या पुरानेको नया कर दिया जायेगा । परवाना अधिकारी नगर परिषदका निरा गुलाम न हो; बल्कि वह स्वतन्त्र हो - ऐसा, जो प्रत्येक प्रार्थनापत्रके गुण-दोषोंपर विचार करके अपना निर्णय खुद कर सके। इसके अलावा और भी कुछ साफ-साफ विषय स्वाधीन रखने हों तो भले ही वे भी रख लीजिए, किन्तु परवाना- - Gandhi Heritage Portal