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दक्षिण आफ्रिकाके भारतीय

उसे स्पष्ट किया था। और यह सत्यसे बिलकुल रहित नहीं था। भारतीयोंके लिए उस समय तो “ब्रिटिश प्रजा" शब्द अर्थशून्य हो गये थे। ब्रिटिश भारतीय ऐसे घोर संकटके समय ब्रिटिश- भूमिमें आश्रय' न पा सके, यह उनकी समझके बाहर था और वे क्या करें, कहाँ जायें' के चक्कर में पड़ गये थे। हालकी घटनाओंसे साबित हो जाता है कि भारतीयोंकी आशंकाएँ बिलकुल सही थीं और आपके जिन पाठकोंने इस' महाखण्डकी उतेजक घटनाओंका अनुशीलन किया है, उन्हें अबतक पता चल गया होगा कि जो लोग अन्तिम क्षणतक ट्रान्सवालसे भागना टालते रहे, उन्हें कैसी मर्मवेधी कठिनाइयाँ भोगनी पड़ी थीं। जोहानिसबर्ग-स्थित ब्रिटिश उप-राजप्रतिनिधिने मदद की। उन्होंने प्रिटोरिया-स्थित ब्रिटिश एजेंटको एक जोरदार खरीता भेजा। एजेंटने, अपनी बारीमें, ब्रिटिश उच्चायुक्तको तार दिया और उनकी एक सामयिक “सिफारिश" से नेटाल सरकारके होश ठिकाने आ गये तथा १० पौंडका शुल्क स्थगित कर दिया गया। आशा करें कि यह स्थगन स्थायी बन जायेगा। और अगर वर्तमान युद्धसे यूरोपीय ब्रिटिश प्रजाओंकी भावनाएँ उनके भारतीय बन्धु-प्रजाजनोंके प्रति ज्यादा अच्छी हो गई. जैसा कि असम्भव नहीं मालूम होता तो उसका एक अच्छा नतीजा तो हो ही जायेगा।

यह कह देना नेटाल-सरकारके प्रति हमारा कर्तव्य है कि सर आल्फ्रेड मिलनरकी लाभदायक सिफारिशके बादसे नेटाल-सरकारने भारतीयोंके प्रति भेद-भाव न करनेकी सावधानी बराबर रखी है। जब जोहानिसबर्ग और डर्बनके बीच मुसाफिरोंका आना-जाना रुक गया तब शरणार्थियोंको डेलागोआ-बेके रास्ते आना पड़ता था। यूरोपीय तो बिना किसी विघ्न-बाधाके डर्बन आ गये। उनके रहने और भोजन आदिको व्यवस्था सरकार या सहायता-समितियोंको करनी पड़ी। परन्तु, ऊपर बताई हुई सूचनाके खयालसे, जहाज-कम्पनियाँ उन भारतीय शरणार्थियोंको लानेकी हिम्मत करनेको तैयार नहीं हुई, जिनमें से एकने भी सरकार या सहायता-समितिसे मददकी माँग नहीं की। सरकारसे निवेदन किया गया था कि उसने रकम जमा कराना तो स्थगित कर ही दिया है, अब जहाज-कम्पनियोंको भारतीय शरणार्थियोंको लानेकी सूचना और दे दे। सरकारने लगभग तुरन्त यह कर दिया। कम्पनियोंको सूचना दी जाने और अधिवास-प्रमाणपत्रका नियम जारी किये जानेसे जो कष्ट हुए उनके कुछ उदाहरण दे देना अनुचित न होगा। जैसा कि मैंने पहलेके एक पत्रमें लिखा है, गिल्टीवाला प्लेग, उनके लिए बहुत उपयोगी सिद्ध हुआ है। नेटालके कठोर सूतक-अधिनियमने भारतसे आनेवाले किसी भी जहाजके लिए भारतीय यात्री लेना बहुत जोखिमका काम बना दिया है। फलतः, ऐसा मालूम होता है, बम्बईकी जहाज- कम्पनियाँ महीनोंसे नेटालके लिए सवारियाँ लेनेसे साफ इनकार करती आ रही हैं। इस तरह, खास तौरसे भारतीय व्यापारियोंको, उनके साझेदारों या कर्मचारियोंके नेटालका टिकट प्राप्त न कर सकनेके कारण, जो हानि उठानी पड़ी और जो असुविधा हुई, वह बहुत गम्भीर है। सरकारसे सहायताकी माँग की गई है, परन्तु सरकार यह कह कर बच गई है कि वह जहाज-कम्पनियोंको कोई आश्वासन तो नहीं दे सकती, परन्तु भारतीय बन्दरगाहोंसे आनेवाले प्रत्येक व्यक्तिके बारेमें उसकी योग्यता-अयोग्यताके आधारपर विचार करेगी। दुर्भाग्यवश, डेलागोआ-बेके अधिकारियोंपर भी गिल्टीवाले प्लेगकी झक सवार हो गई है और उन्होंने, नेटालकी मतवाली चीख-पुकारके वश होकर, हालमें भारतीय सवारीवाले जहाजोंको वापस कर दिया है। उन्हें माल भी उतारने नहीं दिया। उनके मनमें कोई पूर्वग्रह नहीं है; परन्तु चूंकि पड़ोसी उपनिवेशके लोग चिल्ला रहे है कि वहाँ स्वच्छताकी व्यवस्था बिलकुल रद्दी है और संक्रामक रोगोंके मरीजोंकी देखभालका प्रबन्ध और भी गया-बीता है, इसलिए वे बहुत ही जोर-जबरदस्तीसे काम चला रहे हैं। लगभग वे एक सप्ताह पूर्व कांज़लर नामका जहाज बहुत-से भारतीय यात्रियोंको बम्बईसे लेकर आया

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