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१७९. पत्र : के० सन्तानम्‌को

साबरमती आश्रम

९ फरवरी,१९२६

प्रिय सनातनम्,

आपको मैंने कल तारसे उत्तर भेज दिया है। उस आशयका उत्तर भेजते समय हृदय बड़ा क्षुब्ध हुआ। किन्तु जब मैं कृष्णा और उसके बच्चोंकी ओर व्यक्तिगत रूपसे स्वयं ध्यान दे सकूँ और जब आश्रम में बहुत अधिक भीड़ हो गई हो, इतना ही नहीं मेरी उपस्थितिके कारण भीड़ बढ़ती भी जा रही हो, ऐसी स्थिति में नहीं चाहता था कि वह यहाँ रहे।

यद्यपि में अपना कुछ कार्य निबटा लेता हूँ, फिर भी अपना अधिक समय तो बिस्तरपर ही बिताता हूँ। श्रीमती गांधी हैरान हैं। यदि कृष्णा यहाँ आ जाती और फिर उसकी उपेक्षा होती या उसे किसी भीड़भाड़वाले कमरेमें टिका दिया जाता, तो मैं अपनेको कभी क्षमा न करता। साथ ही यह भी कह दूं कि यह उसका घर है और यदि वह उक्त चेतावनीकी परवाह न करके आना ही चाहे तो वह अवश्य आये और अन्य आश्रमवासियों के साथ कठिनाईयाँ और असुविधाएँ झेले।

इस बातकी सम्भावना नहीं है कि मार्चके अन्तसे पहले मैं किसी पहाड़ी स्थानपर जा सकूँगा। आशा है कि आप दोनों कताई कर रहे हैं।

हृदयसे आपका,

पण्डित के० सन्तानम्
१०, निस्बत रोड, लाहौर

अंग्रेजी प्रति (एस० एन० १४०८६) की फोटो-नकलसे।

१८०. पत्र : कौंडा वैंकटप्पैयाको

साबरमती आश्रम

९ फरवरी, १९२६

प्रिय मित्र,

आपका पत्र मिला। हाँ, इस पिछले बुखारने मुझे बहुत कमजोर बना दिया है। साबरमतीकी जलवायु इन दिनों काफी ठण्डी और अच्छी है; मैं पर्याप्त विश्राम भी ले रहा हूँ। यदि तनिक भी सम्भव हुआ तो गरमी शुरू हो जानेपर मेरा कहीं बाहर जानेका विचार अवश्य है; किन्तु मैं यह निर्णय नहीं कर पाया हूँ कि कहाँ जाऊँगा। किन्तु मुझे आपके बारेमें तो जो कुछ मालूम हुआ है, उससे मुझे यह आशंका हुई है कि आपकी स्थिति पहलेसे अच्छी न होकर शायद और भी खराब