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१७६. पत्र: च० राजगोपालाचारीको

साबरमती आश्रम

९ फरवरी, १९२६

प्रिय च० राजगोपालाचारी,

महादेव यहाँ नहीं है। वह गुजरातमें एक सम्मेलनमें शरीक होने गया हुआ है। उसके नाम आपका पत्र मैंने खोला। सुब्वैयाने[१] अपना काम अभी-अभी शुरू किया है। इसलिए मैं अपना पत्र-व्यवहार पहलेकी अपेक्षा अब ज्यादा अच्छी तरहसे कर सकूंगा।

मैं कुनैन नहीं ले रहा हूँ। क्या आपने कुनैनके द्वारा एक भी बीमारी निश्चित रूपसे अच्छी होती देखी है ? मैंने उसे तीन या चार दिन थोड़ी-थोड़ी मात्रामें लिया। इस समय बुखार नहीं है। डा० कानूगा प्रति सप्ताह आयरन और आर्सेनिककी एक सुई लगा रहे हैं। दो सुइयाँ लगा चुके हैं। पता नहीं इनसे भी कोई लाभ होगा या नहीं। किन्तु मैं यह होने दे रहा हूँ, ताकि मैं अपनेको बहससे तथा सम्भावित जोखिमसे बचा सकूँ। आजकल तो मैं अपनेको लगभग पूरा-पूरा विश्राम दे रहा हूँ। दिनमें खूब सो लेता। धीरे-धीरे ताकत आ रही है। जबसे एपेंडिसाइटिसका ऑपरेशन हुआ है, तबसे किसी चीजसे भी मेरा स्वास्थ्य इतना कमजोर नहीं हुआ था जितना कि पिछले बुखारसे हुआ है।

जेराजाणीके[२] विज्ञापनको आप परवाह न करें। वह खादीका विज्ञापन अपने तरीकेसे कर रहा है।

‘नेशनल मेडिकल कालेज’ के लिए मैं भला क्या कर सकता हूँ ? जिनके हाथों- में उसकी व्यवस्था है, उनका काम करनेका अपना ही तरीका है। मैं इसे अनुचित नहीं कहता, लेकिन मैं उसे समझ नहीं सका। मैं हस्तक्षेप करनेकी घृष्टता नहीं करूंगा। वैसा करना मेरे लिए ठीक नहीं होगा। मैं नहीं समझता कि भारतीय चिकित्सकों से अपील करनेपर वांछित आर्थिक सहायता उपलब्ध होगी। हम शिक्षित व्यक्तियोंके आत्मत्यागको सुनिश्चित सीमाएँ हूँ। कलकत्तामें एक इसी प्रकारकी संस्था है जो अधिक पुरानी है; उसकी व्यवस्थामें कोई खराबी नहीं है फिर भी उसे ऐसी हो आर्थिक कठिनाइयोंसे गुजरना पड़ रहा है। इस प्रकारकी संस्थाओंको

एक खास तरीकेसे ही चलना पड़ेगा।

  1. १. गांधीजीके पास भेजे गये आशुलिपिक।
  2. २. मूलमें जोवराजानी है।