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पत्र : सतीशचन्द्र दासगुप्तको

 

आज हिन्दू धर्मकी और अन्य धर्मोकी परीक्षा हो रही है। सनातन सत्य एक ही है। ईश्वर भी एक ही है। लेखक, पाठक और हम सब मतमतान्तरोंके मोह-जालमें न फँसकर सत्यके सरल मार्गका ही अनुसरण करेंगे तभी हम लोग सनातनी हिन्दू रह सकेंगे। सनातनी माने जानेवाले तो बहुतसे लोग भटक रहे हैं। उसमें कौन जानता है कि किसका स्वीकार होगा। रामनाम लेनेवाले बहुतसे रह जायेंगे और चुपचाप रामका काम करनेवाले थोड़ेसे लोग विजयमाला पहन लेंगे।

[गुजराती से]

नवजीवन, ७-२-१९२६

१७२. पत्र : सतीशचन्द्र दासगुप्तको

८ फरवरी, १९२६

प्रिय सतीश बाबू,

आज मेरा मौनवार है, इसलिए आपको लिखनेके लिए कुछ मिनट मिल गये। अरुणकी अन्य लड़कोंके साथ घनिष्ठता हो गई है। आशा है वह जल्दी ही गुजराती सीख जायेगा। किन्तु हेमप्रभा देवी प्रसन्न नहीं हैं। लगता है, वे रात-दिन घरकी याद करती रहती हैं। उन्होंने वहाँ जानेकी अनुमति मांगी थी। मैंने उन्हें समझाया, किन्तु उन्होंने बासे फिर कहा कि कलकत्तामें सभी लोगोंने उनसे लौट जानेके लिए जोर देकर कहा था। उन्हें आपकी बड़ी चिन्ता है। उन्हें लगता है, आप जीवनमें पहले जैसा रस नहीं लेते। अब आप उदास रहते हैं और खादीके लिए हदसे ज्यादा चिन्ता किया करते हैं। हो सकता है वापस जानेकी उनकी इच्छा उपयुक्त हो; किन्तु मैं बखूबी जानता हूँ कि हदसे ज्यादा चिन्ता करने से आप तो खादीको नुकसान हो पहुँचायेंगे। हर काम 'निर्ममो भूत्वा'[१] करना चाहिए। मैं आपसे इस बातका वचन चाहता हूँ कि खादीका कुछ भी क्यों न हो, आप उसके बारेमें क्षुब्ध नहीं होंगे। हम कौन होते हैं ? यदि यह अच्छी चीज़ है तो अवश्य ही ईश्वर स्वयं उसे समृद्ध बनायेगा। हम तो निमित्त मात्र हैं। यदि हम अपनेको शुद्ध रखते रहें और पवित्रताके प्रवेशके लिए सदा द्वार खुले रखें तो हमें जो करना चाहिए था वह हम कर चुके। हमें अपनी लगाम उसके हाथमें दे देनी चाहिए, वह जैसा चलाये वैसे हमें चलना चाहिए।

मैं नहीं चाहता कि आप उनका मन अशान्त करें। मैं जो कुछ देखता हूँ वह आपको लिख भेजता हूँ, ताकि आप मुझे बता सकें कि क्या करना चाहिए और उन्हें सान्त्वना किस प्रकार देनी चाहिए। वास्तविक सान्त्वना तो उनको आपकी ओरसे मिलनी चाहिए। मैं अपनी ओरसे तो सतर्क रहता ही हूँ। किन्तु यदि उनकी

  1. १.देखिए भगवद्गीता, अ० ३, ३०।