पृष्ठ:सम्पूर्ण गाँधी वांग्मय Sampurna Gandhi, vol. 29.pdf/४६४

यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
४३८
सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय


विवाह कर देते थे तो क्या हम आज भी वैसा ही करें ? एक समय हम लोगोंने कुछ मनुष्योंको तिरस्कृत माना था; क्या इसलिए हम आज उनकी सन्तानोंको भी तिरस्कृत ही मानें ?

हिन्दू धर्म जड़ बनने से साफ इनकार करता है। ज्ञान अनन्त है, सत्यकी सीमा कोई खोज नहीं पाया है। आत्माकी शक्तिकी नई-नई शोधें होती ही रहती हैं और होती ही रहेंगी। हम अनुभवके पाठ पढ़ते हुए अनेक प्रकारके परिवर्तन करते रहेंगे। सत्य तो एक ही है, लेकिन उसे सम्पूर्ण रूपसे कौन जान सका है ? 'वेद' सत्य है, 'वेद' अनादि है, लेकिन उसे पूर्णतः कौन जान सका है? आज जो 'वेद' के नामसे विख्यात है वह तो 'वेद' का करोड़वाँ भाग भी नहीं है। जो हम लोगोंके पास है उसका अर्थ भी पूर्णतया कौन जानता है ?

इतना बड़ा जाल होनेके कारण हो तो ऋषियोंने हमें एक बहुत बड़ी बात सिखाई है, 'यथा पिण्डे तथा ब्रह्माण्डे'। ब्रह्माण्डका पृथक्करण करना असम्भव है। अपना पृथक्करण करके देखना शक्य है। और अपने आपको पहचाना कि सारे संसारको पहचान लिया। लेकिन अपनेको पहचाननेके लिए प्रयत्न करना आवश्यक है। और वह प्रयत्न भी निर्मल होना चाहिए। निर्मल हृदयके बिना प्रयत्नका निर्मल होना असम्भव है। यम-नियमादिके पालनके बिना हृदयकी निर्मलता भी सम्भव नहीं है। ईश्वरकी कृपाके बिना यम-नियमादिका पालन कठिन है, श्रद्धा और भक्तिके बिना ईश्वरकी कृपा प्राप्त नहीं हो सकती। इसीलिए तुलसीदासजीने रामनामकी महिमा गाई है और भागवतकारने द्वादशाक्षर-मन्त्र सिखाया है। जो हृदयसे इनका जप कर सकता है वही सनातनी हिन्दू है।

बाकी और सब तो अखा भगतको भाषामें 'अन्य कूप' हैं।

अब लेखककी शंकाओंका विचार करें। यूरोपीय लोग हमारे रीति-रिवाजोंको देखते अवश्य हैं; लेकिन मैं उसे अध्ययनके जैसा सुन्दर नाम न दूंगा। वे तो उन्हें आलोचना करनेकी दृष्टिसे ही देखते हैं, इसलिए मैं अपना धर्म उनके पाससे नहीं सीख सकता।

भूतकालमें गोमांसादि खानेवालोंका बहिष्कार भले ही उचित हो, लेकिन आज तो वह अनुचित और असम्भव है। अस्पृश्य माने जानेवाले लोगोंसे गोमांसादिका त्याग कराना हो तो यह केवल प्रेम ही से होगा, उनके विवेकको जागृत करनेसे ही होगा। उनका तिरस्कार करने से यह सम्भव नहीं होगा। उनकी बुरी आदतें छुड़ानेके प्रेममय प्रयोग हो ही रहे हैं; लेकिन हिन्दू धर्मकी परिसीमा खाद्याखाद्यमें ही नहीं है। उससे अनन्तकोटि अधिक महत्त्वकी बात अन्तराचरण है, सत्य और अहिंसा दिका सूक्ष्म पालन है। गोमांसका त्याग करनेवाले दम्भी मुनिकी अपेक्षा गोमांस खानेवाला दयामय, सत्यमय और ईश्वरका भय मानकर चलनेवाला मनुष्य हजार गुना अधिक अच्छा हिन्दू है। और जो सत्यवादी और सत्याचारी है, जिसने गोमांसादिके आहारमें हिंसा देखी है, जिसने उसका त्याग किया है तथा जो जीव-मात्रके प्रति दयाभाव रखता है उसे तो हमारे कोटिशः नमस्कार हैं। उसने तो ईश्वरको देखा है, पहचाना है, वह परमभक्त है; वह जगद्गुरु है।