१६९. पत्र : वसुमती पण्डितको
गुरुवार [४ फरवरी, १९२६][१]
चि० वसुमती,
आज रामदासके बजाय तुम्हारे नाम पत्र लिख रहा हूँ। दवासे उस बहनको कोई लाभ हुआ या नहीं? घूमनेका नियम चला रखा है अथवा नहीं ?
कुसुमकी तबीयत वहां कैसी रहती है ? क्या वह कुछ लिखती-पढ़ती भी है ? क्या सितार साथ है? वह अपना समय किस तरह व्यतीत करती है ?
क्या शान्ता कुछ पढ़ती है ? उसका लिखनेका अभ्यास बनाये रखना ठीक होगा।
बापूके आशीर्वाद
गुजराती पत्र (सी० डब्ल्यू० ४६९) से।
सौजन्य : वसुमती पण्डित
१७०. पत्र : मोतीबहन चौकसीको
शनिवार, ६ फरवरी, १९२६
मैंने तो तुम्हें अपने से जरा भी जुदा नहीं किया है; और न ऐसा माना है। मैं बड़े लड़के, लड़कियों और छोटे बच्चोंको भी अनेक बार पत्रोंमें, 'तुम' लिख देता हूँ। यदि हृदयमें भेद न हो तो 'तू' अथवा 'तुम' में कोई भेद नहीं है। तुम्हारी लिखावटमें सुधार होनेकी आशा तो मैं हमेशा करूँगा।
तुम्हें चरखा तो नित्य ही चलाना चाहिए।
गृहस्थाश्रम-सम्बन्धी पुस्तक मुझे पढ़कर देखनी होगी।
तुम्हें आश्रमके समाचार अभी न मिले हों तो मुझे लिखना।
नाजुकलालकी तबीयत अच्छी होती जाती है, यह बहुत ही खुशीकी बात है। तुम दोनों जब आना चाहो तब आना।
गोमतीबहन अभी चारपाईमें पड़ी है। थोड़ा खाती-पीती तो है, परन्तु वह अभी बिल्कुल स्वस्थ नहीं है।
- ↑ १. डाककी मुहरसे।