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‘कुण्डलम’ किनारी कहते हैं। इस किनारीमें इस्तेमाल किया गया सूत निश्चित रूपसे विलायती होता है। इसे शुद्ध खादीकी तरह इस्तेमाल किया जा रहा है और इसे महात्मा गांधीका समर्थन भी प्राप्त है। क्या यह ठीक है ?

यह कदापि ठीक नहीं है। मैंने ऐसी किसी चीजको मान्यता नहीं दी है। मैं ऐसी घोतियोंको शुद्ध खादी कहना जालसाजी समझता हूँ। यह प्रश्न १९१९ ई० में ही सामने आया था जब मिलकी बनी घोतियाँ जिनकी किनारी विलायती सूतसे तैयार की गई होती थी, इस्तेमाल की जाती थी। मुझे मालूम है कि अनेक सज्जन उन धोतियोंको पहनने से इनकार करनेपर इसीलिए विवश हुए थे कि उनकी किनारीमें विलायती सूतका लगाया जाना सिद्ध हो चुका था। ऊपरसें ये बातें छोटी दिखाई देती हैं, लेकिन इनसे यथार्थतापर एक दबा-छुपा अतिक्रमण होता है। इसलिए ऐसे मामलों में किसी व्यक्तिको प्रमाण नहीं माना जा सकता। मैंने एक बातके बारेमें अपनी स्वीकृति अवश्य दी है; वह है बम्बईकी महिलाओंका कार्य। वे खादीके थानोंपर कढ़ाईका काम करती हैं। कढ़ाईके इस कामके लिए उन्हें विलायती रेशमका इस्तेमाल करना पड़ता है। लेकिन वे किसीको धोखेमें नहीं रखतीं। यदि उन्हें हाथसे कता रेशमी तागा मिले तो वे इस विलायती रेशमी तागेका इस्तेमाल नहीं करना चाहतीं। लेकिन जबतक उन्हें हाथसे कता रेशमी तागा नहीं मिलता, तबतक शौकीन लोगों में खादी बेचनेकी खातिर उन्हें कुछ-न-कुछ कढ़ाई करनी पड़ती है और जो लोग उनकी साड़ियाँ खरीदते या पहनते हैं, उनसे वे साफ-साफ कह देती है कि उनकी कढ़ाई में कितना विलायती सूत लगाया गया है। लेकिन शुद्ध खादीपर कढ़ाई करनेके आधारपर खादी बनानेमें ही विदेशी सुतका इस्तेमाल करना और उसे शुद्ध खादी कहना, एक ऐसी लम्बी और खतरनाक छलांग है जिसे बर्दाश्त नहीं किया जा सकता।

मैसूरमं चरखा

'हिन्दू' में एक काफी बड़ा समाचार प्रकाशित हुआ है। शीर्षक है 'एक विशाल चरखा प्रदर्शनी और कताई प्रतियोगिता।' यह अभी हालमें चरखा संघके तत्वाव- घानमें बंगलोरमें आयोजित की गई थी। इस दिलचस्प और शिक्षाप्रद समारोहकी मुख्य घटना है, अध्यक्ष श्री जेड० मैकीके द्वारा, जो मैसूरके उद्योग और वाणिज्य निर्देशक हैं, दिया गया भाषण। श्री मँकीने चरखेके आलोचकोंको सर्वांगपूर्ण, और मेरे विचारसे शंकाओंको निर्मूल करनेवाला उत्तर दिया है। उन्होंने इस बातपर जोर दिया है कि चरखेको 'गरीबी और बेकारीकी दृष्टिसे देखना उचित है।' उन्होंने यह भी कहा :

यह सभी जानते हैं कि ५० प्रतिशतसे अधिक लोग खेतीमें लगे हुए हैं और सालमें लगभग ६ महीने वे बेफार बैठे रहते हैं। इतना ही नहीं, वर्षा इतनी विरल और अनिश्चित है कि हर समय अकालकी-सी स्थितिके सामने खड़ा रहना एक आम बात-सी हो गई है।
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