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१६१. पत्र : रामदास गांधीको

आश्रम

२१ जनवरी, १९२६

चि० रामदास,

आज कुछ शक्ति आई है सो पहला पत्र तुम्हींको लिखने बैठा हूँ। दायें हाथको बादमें आराम देना होगा; इसलिए मुझे अधिकांश तो बोलकर ही लिखवाना पड़ेगा

महादेवभाई तुम्हें मेरे स्वास्थ्यके समाचार तो देते ही रहते हैं । इस बार बुखार बहुत तेज रहा और टिका भी लम्बे समयतक। अब चार दिनसे टूटा है। चार दिनसे मैंने दूध लेना भी बिलकुल बन्द कर दिया है। इससे पहले रविवारको दूध लिया था। बादमें दो दिन पानी, शहद और नीबूके रसपर रहा। अब दो दिनसे संतरा और अंगूर लेता हूँ। आज दूध शुरू करना है। मेरे बारेमें चिन्ता करने जैसी कोई बात नहीं है।

तुम अपने बारेमें भी यही कह सको तो कितना अच्छा हो । अपने मानसिक ज्वरको दूर करना तुम्हारे हाथमें है। क्या तुम उसे दूर नहीं करोगे ? आखिर यह ज्वर है क्या ? तुम्हें गहराईमें उतरकर और अपने मनको टटोलकर किसी निश्चयपर पहुँच जाना चाहिए। बम्बईमें क्या मिलेगा ? कलकत्तामें क्या मिलेगा? जो मिलना है सो तो तुम्हारे हृदयमें है। उसकी यात्रा करो। उसमें घाटियाँ हैं, पहाड़ हैं और खाने भी हैं। उसमें अपार राशि भरी हुई है। उसे लूटो। वह लूटनेसे खत्म होनेवाली नहीं है। अपने मनको समझाओ तो अमरेलीमें क्या नहीं है? जब तुमने वहाँ रहनेका निश्चय किया तो उसे अब वापस कैसे लिया जा सकता है? वहां तुम्हारी जरूरत है। उसे तुम अपना सफल कर्मक्षेत्र बनाओ। वहाँसे हारकर भागोगे तो यह मुझे तनिक भी अच्छा न लगेगा। अब में रोज ऐसा इंजेक्शन भेजनेका प्रयत्न करूंगा। तुम भी मुझे रोज लिखना।

बापूके आशीर्वाद

गुजराती पत्र (एस० एन० १२१८१) की फाटो-नकलसे।