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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय


वह भी बुरी है। समझौते के प्रयत्नोंका परिणाम मालूम होनेपर यह नहीं कहा जाना चाहिए कि लार्ड रीडिंग ऐसा कुछ भी प्राप्त नहीं कर सके जिसे प्रवासी भारतीयोंकी दृष्टिसे कोई ठोस लाभ माना जा सके।

[अंग्रेजीसे]

यंग इंडिया, २८-१-१९२६

१६०. खादी-प्रचार

अब यह जमाना आ गया है कि कुछ अति सुसंस्कृत व्यक्ति त्यागभावसे खादी- प्रचारके कार्यमें लग गये हैं। उनकी यह त्याग भावना देखकर इस देशकी उस युगकी प्राचीन परम्पराओंकी याद हो आती जब राष्ट्रकी या धर्मकी सेवा राष्ट्र या मंके विचारसे ही की जाती थी। खादी प्रतिष्ठानके सतीश बाबूका एक पत्र पाकर मुझे ऐसा लगा। वे लिखते हैं कि डा० प्रफुल्ल घोष कांग्रेस कमेटियों द्वारा आयोजित सभाओं में एक जगहसे दूसरी जगह जा-जाकर बंगालमें खादी-प्रचार कर रहे हैं और वे इस कामको बड़ी तत्परताके साथ कर रहे हैं। वे इसमें होनेवाले श्रमकी कुछ भी परवाह नहीं करते हैं और श्री भरुचाके जैसी लगनके साथ अपने कन्धोंपर खादीके थान रखे हुए फेरी लगा रहे हैं। डा० घोष, डा० रायके प्रिय शिष्यों में से रहे हैं और वे टकसालमें ५००) माहवार वेतनकी जगहपर काम कर रहे थे। अब वे ३०) से अधिक वेतन नहीं लेते और स्वयं मैंने देखा है कि वे आजकल किस तरह रह रहे हैं। बंगाल या यों कहिए सारे हिन्दुस्तान में अकेले वे ही ऐसे व्यक्ति नहीं है जो गरीबीमें दिन काटते हुए चरखेके द्वारा देशमें दरिद्रनारायणकी सेवा कर रहे हैं। बंगाल और बंगालके बाहर कितनी ही संस्थाओंमें ऐसे अति योग्य और शिक्षित युवक मौजूद हैं, जिन्होंने खादीको अपना यदि एकमात्र नहीं तो मुख्य धन्धा बना लिया है और जो केवल थोड़ा-सा वेतन लेकर काम कर रहे हैं। लेकिन चूंकि खादीका अर्थ भारतके करोड़ों निर्धन लोगोंकी सेवा करना है इसलिए स्वभावतः इसके प्रति ऐसे कुछ सैकड़ों ही नहीं बल्कि हजारों युवा स्त्री-पुरुषोंकी श्रद्धा होनी आवश्यक है।

[अंग्रेजीसे]

यंग इंडिया , २८-१-१९२६