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१५७. पत्र : कल्याणजी देसाईको

आश्रम

२४ जनवरी, १९२[६][१]

भाई कल्याणजी,

समाचार सुननेके तुरन्त बाद ही आपको पत्र लिखनेका इरादा था; लेकिन मैं ऐसा नहीं कर सका, क्योंकि तबतक फिर बीमार पड़ गया। जो जन्मा है उसके लिए बीमारीसे कष्ट पाना और मरना तो लिखा ही है। तब हम उसपर शोक क्यों करें? आपकी सयानी लड़की चल बसी; इससे दुःख तो स्वभावतः ही होता है। लेकिन यदि इस दुःखको गहराईसे सोचें तो हम देखेंगे कि इसमें स्वार्थ और भयके अलावा और कुछ नहीं। उसे अपनी मानने में हमारा स्वार्थ है; और हम स्वयं भी मरना नहीं चाहते, इसलिए दूसरोंकी मृत्युसे भी हमें भय लगता है। स्वार्थ और भय दोनोंको छोड़ देना आत्माका स्वभाव है; लेकिन हम तो शरीरको ही आत्मा मान बैठे हैं, इसलिए एक दूसरेके दुःखमें रोते रहते हैं और मृत्युके भयको पोषित करते रहते हैं।

ईश्वर आपको शान्ति दे।

गुजराती प्रति (एस० एन० १२१७९) की फोटो नकलसे।

१५८. पत्र : एक समाज सेवकको

नवजीवन, सारंगपुर

अहमदाबाद

२४ जनवरी, १९२६

भाईश्री...,

चोट लग जानेके कारण मैं अपने हाथसे पत्र नहीं लिख पा रहा हूँ। मुझे तीन दिन पहले ही पत्र लिख देना था, लेकिन बहुत व्यस्त होनेके कारण लिख नहीं सका। यह व्यस्तता ही मेरे बुखारका मुख्य कारण है। आज इस समय बुखार नहीं है। सम्भव है, अब न भी आये। सिहोर गई हैं, तुमने यह तो उनके पत्रसे ही जान लिया होगा। तार देखकर मुझे लगा था कि उन्हें सिहोर अवश्य जाना चाहिए। तार झूठा है, ऐसा मानकर नहीं चलना चाहिए। यह बात मेरे मनमें तो स्पष्ट ही थी। मुझे उनका कोई पत्र अभीतक नहीं मिला है। वे जबतक यहाँ रहीं तबतक मैंने उनसे काफी मिल-जुलकर खूब बातें कीं। इस सबसे मैं इस निर्णयपर

  1. १. मूलमें अन्तिम अंक अस्पष्ट है। गांधीजीकी बीमारीके हवालेपर से निर्धारित।