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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय


चरखों और करघोंके जरिये अपनी जरूरतका पूरा कपड़ा बना सकती है। चरखेकी प्रवृत्तिके द्वारा सहज संकल्प और सहज प्रयत्नसे विदेशी वस्तुका तत्काल बहिष्कार सम्भव है। परन्तु चाहे जैसे संकल्प और प्रयत्नसे मिलोंके जरिये तत्काल बहिष्कार करना असम्भव है और हमें मिलोंके जरिये बहिष्कार करने में दो चीजोंके लिए बहुत समयतक परावलम्बी रहना पड़ेगा। हमें बहुत वर्षांतक यन्त्र और इंजीनियर बाहरके देशोंसे मँगाने पड़ेंगे।

फिर मिलोंकी वृद्धि होनेसे गरीबोंकी भुखमरीका नाश तो हो ही नहीं सकता। और यदि हमें कंगालीको दूर करनेका कोई दूसरा उपाय आज नहीं मिलता तो स्वराज्य मिलनेपर मिल जायेगा, यह माननेका हमारे पास कोई कारण नहीं है। चरखेके बजाय सार्वजनिक भुखमरीको दूर करनेके जो-जो उपाय आजकल सुझाये गये हैं, उनका अभीतक कोई प्रयोग भी नहीं कर सका है। इसलिए मेरा मत है कि हिन्दुस्तानके करोड़ों लोगोंकी भूख मिटानेवाली चरखेके सिवाय दूसरी कोई भी शक्ति नहीं है।

और यदि मेरा ऐसा ही अडिग मत है, तो मेरे लिए चरखेकी सफलता या निष्फलताका प्रश्न ही नहीं उठ सकता। मैंने तो ऐसा मत भी व्यक्त किया है कि विदेशी कपड़ेके बहिष्कारके बिना करोड़ोंको स्वराज्य प्राप्त होना सम्भव नहीं है। मैं अपने इस मतपर भी दृढ़ हूँ। इसलिए चरखा प्रवृत्तिके व्यापक होने में एक वर्ष लगे या सौ, मेरे लिए यही स्वराज्य प्राप्तिका सर्वोत्तम उपाय है, और उसके द्वारा मैं अस्पृश्योंकी सेवा करता हूँ और हिन्दू मुसलमान ऐक्यमें भी योगदान करता हूँ, क्योंकि मुझे तो उनको भी समझना होगा कि वे लोढ़ें, धुनें, कातें और बुनें। मिलकी प्रवृत्तिमें से ऐसी एक भी बात निष्पन्न नहीं हो सकती। मिलें सफल होनेपर ही अच्छी मानी जा सकती हैं और फिर भी उनका परिणाम अल्प ही हो सकता है। मैं किसी भी ऐसे-वैसे उपायसे साधे गये बहिष्कारके परिणामको अल्प समझता हूँ। करोड़ोंके प्रयत्नसे और उनकी भूख मिटाकर जो बहिष्कार हो, परिणाममें वही महान् माना जा सकता है। फिर चरखेकी प्रवृत्ति सफल हो या निष्फल, उसमें कोई दोष तो है ही नहीं। इसका अर्थ यह हुआ कि उसमें निष्फलताका भय होना सम्भव ही नहीं है।

[गुजरातीसे]

नवजीवन, २४-१-१९२६