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बड़ोदामें शिक्षाकार्य

बड़ोदाके राजाके अपने राज्यमें अधिक न रहने और रियासतमें थोड़ा-थोड़ा सुधार करने की नीतिके सम्बन्धमें चाहे कुछ भी क्यों न कहा जाये, परन्तु उस रिया- सतमें शिक्षाकी जो प्रगति हुई है उसके बारेमें कुछ भी सन्देह नहीं हो सकता है। महाराजा साहबके स्वर्ण जयन्ती उत्सवके अवसरपर रियासतके शिक्षा विभाग द्वारा जो पुस्तिका प्रकाशित की गई है, उससे यह बात स्पष्ट होती है। आजसे ५० साल पहले वहाँ केवल २०० प्राथमिक शालाएँ थीं और उनमें केवल ८०० लड़के पढ़ते थे। आज वहाँ ७८ अंग्रेजी स्कूल और एक कालेज भी है। उनमें कोई १४,४२५ विद्यार्थी पढ़ते हैं, जिसमें ३४५ लड़कियाँ भी हैं। देशी भाषाके २९१६ स्कूल हैं। उनमें २,१७,१३८ विद्यार्थी पढ़ते हैं जिनमें ६७,३८४ लड़कियां हैं। विद्यालयोंकी इस संख्या में दलितवर्गोंक २१९ स्कूल भी शामिल हैं। १२४ उर्दू के स्कूल हैं जिनमें से २६ लड़कियोंके लिए हैं। इनमें ६,६९३ विद्यार्थी शिक्षा पा रहे हैं। यह सब निःसन्देह प्रशंसनीय है। लेकिन यह प्रश्न उठता है कि इस शिक्षासे लोगोंकी माँग पूरी होती है या नहीं। हिन्दुस्तान के दूसरे अंचलोंकी तरह यहाँ भी किसानोंकी ही बस्ती अधिक है। क्या इससे किसानोंके लड़के अधिक अच्छे किसान बनते हैं? क्या उन्होंने शिक्षा पाकर कुछ नैतिक और भौतिक उन्नति की है ? परिणाम जाननेके लिए ५० सालका समय काफी लम्बा है। लेकिन मेरा अनुमान है कि इसका सन्तोषजनक उत्तर न मिल सकेगा। बड़ोदाके किसान दूसरे विभागोंके किसानोंकी अपेक्षा न अधिक सुखी हैं और न उनसे अच्छे ही। दुष्कालके समयमें दूसरी जगहोंके किसानोंकी तरह वे भी लाचार हो जाते हैं। उनके गाँवोंकी स्वच्छता सम्बन्धी हालत भी दूसरे गाँवोंकी तरह वैसी ही है जैसी सभ्यताके प्रारम्भिक कालमें हुआ करती थी। वे अपना कपड़ा आप बना लेनेके महत्त्वको भी नहीं समझते। बड़ोदा राज्यकी कुछ जमीन तो बड़ी ही उपजाऊ है। उसे रुई बाहर भेजनेकी आवश्यकता नहीं होनी चाहिए। यह राज्य आसानी से स्वावलम्बी राज्य बन सकता है और उसके किसान खुशहाल हो सकते हैं। लेकिन उसमें तो विदेशी कपड़ा इस्तेमाल किया जा रहा है; जो उसके दारिद्रय और पतनका स्पष्ट चिह्न है। वहाँ शराबखोरी भी कुछ कम नहीं है। शायद इस बातमें तो वह दूसरे क्षेत्रोंसे भी अधिक गिरा हुआ है। ब्रिटिश राज्यकी तरह बड़ोदा राज्यकी शिक्षा भी शराबकी आमदनीसे कलंकित है। कालीपरज जातिके लोग शिक्षा जरूर पा रहे हैं परन्तु शराबखोरीकी लतसे उनका सत्यानाश हो रहा है। सच बात तो यह है कि बड़ोदाके शिक्षाकार्यको ब्रिटिश हिन्दुस्तानकी शिक्षा पद्धतिका अनुकरण- मात्र समझना चाहिए। उच्च शिक्षा प्राप्त कर लेनेपर हम अपने देशमें ही विदेशी बन जाते हैं और जो प्राथमिक शिक्षा मिलती है उसका जीवनमें कोई उपयोग न होनेके कारण वह व्यर्थ ही चली जाती है। उसमें न मौलिकता है और न स्वाभाविकता ही। यदि वह देशीय हो तो उसे मौलिक होनेकी जरूरत ही न पड़े।