पृष्ठ:सम्पूर्ण गाँधी वांग्मय Sampurna Gandhi, vol. 29.pdf/३७९

यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।

८९. वफादारीका अतिरेक

एक सज्जन लिखते हैं: "

ऐसा तर्क केवल हिन्दुस्तानमें ही किया जा सकता है। हिन्दुस्तान में स्वामी- भक्ति के गुणका बहुत विकास किया गया है और इससे देशने लाभ भी उठाया है; फिर भी आज तो हम लोग अच्छे-अच्छे गुणोंके अतिरिक्त अथवा फिर उसके विपरीत आचरणका ही अनुभव कर रहे हैं।

पहले तो हम 'महाभारत' से दिये गये दृष्टान्तको काटेंगे । धर्मराजने भीष्म आदिके पास जानेपर स्वामि-भक्तिको निमित्त न बताकर अपने उदरकी ओर संकेत करके कहा था कि हम इस पापी पेटके लिए ही ऐसा कर रहे हैं। विदुरजी किसीके भी साथ नहीं रहे थे । 'रामायण' देखेंगे तो मालूम होगा कि विभीषणने धर्मका विचार करते समय न स्वामि-भक्तिको देखा और न भ्रातृप्रेमको । उन्होंने रामचन्द्रकी पूर्ण सहायता की, लंकाके छिपे हुए भेदोंको बताया और वे प्रह्लाद तथा अन्य भक्तोंकी पंक्तिमें गिने गये ।

सम्भव है विपरीत दृष्टान्त भी मिल जायें; तो भी नीति-विरुद्ध दृष्टान्तोंका निस्सन्देह त्याग ही किया जाना चाहिए। 'रामायण 'में गोमांसका विधान हो या 'वेद' में पशुवधका विधान मिल जाये तो हम उसके कारण आज न गोमांस खायेंगे और न पशुबध करेंगे। सिद्धान्त तो तीनों कालों में एकसे ही रहते हैं। लेकिन उनके आधार पर बनाये गये आचार नियम समय और स्थितिके बदलनेपर बदलते ही रहेंगे ।

अब वफादारीपर विचार करें। सरकारी नौकरीका गुप्त या प्रसिद्ध प्रकट ऐसा कोई भी नियम नहीं है जिसके अनुसार सरकारी कर्मचारी खादी नहीं पहन सकते । कुछ कर्मचारियोंको खास सरकारी वर्दी पहननी पड़ती है; लेकिन वह एक अलग बात है। ऐसी खास वर्दी पहननेवाले कर्मचारी भी अपने खानगी समय में बिना दुराव-छिपाव के खादी पहन सकते हैं। खादी ऐसी वस्तु नहीं है जो सरकारके विरुद्ध हो और जो सरकारके विरुद्ध मानी जाती हो। उसी प्रकार ऐसा भी कोई नियम नहीं है कि सरकारी कर्मचारी किसी भी सार्वजनिक आन्दोलनके प्रति सहानुभूति नहीं दिखा सकता । हाँ, जो नौकर वफादार है वह जबतक नौकरी करता है तबतक सरकार जिस आन्दोलन- को देशद्रोहात्मक मानती है उसमें भाग नहीं ले सकता। लेकिन यदि वह सरकार के हुक्मको अनुचित मानता हो और उसमें विरोध करनेकी हिम्मत हो तो वह नौकरी छोड़कर सरकारका विरोध भी कर सकता है। नीतिका या दूसरा ऐसा कोई नियम नहीं है कि जिसने एक मरतबा नौकरी कर ली वह सदा नौकर ही बना रहे; अथवा यह बात भी नहीं है कि नौकरको स्वामीके कार्यकी नीति या अनीतिका विचार ही

१. पत्र यहाँ नहीं दिया गया है। इसमें राष्ट्रीय प्रवृत्तियोंसे सहानुभूति दिखानेके कारण सरकारी नौकरोंकी जो आलोचना की जाती है उसका उल्लेख था ।

२९-२३