पृष्ठ:सम्पूर्ण गाँधी वांग्मय Sampurna Gandhi, vol. 29.pdf/२८२

यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
२५६
सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

विदेशी कपड़ेके बहिष्कारसे नहीं डरते, उन्हें तो इससे दूर रहनेकी कोई आवश्यकता हो नहीं है। यदि इस प्रकारकी किशोर शाखा बन सकी तो वह किशोरोंका सचमुच एक ममता मण्डल (लोग ऑफ मर्सी) ही बन जायेगा और वह बच्चोंको करोड़ों अर्धभूखे लोगों की खातिर त्याग करना सिखायेगा ।

युद्धके कारण

कुछ समय हुआ एक अमेरिकी मित्रने मेरे पास श्री पेज द्वारा लिखित एक पुस्तिका भेजी थी। इसकी भूमिका श्री हैरी एमर्सन फॉस्डिकने लिखी है। इस निबन्ध में पिछले महायुद्धके कारणोंके बारेमें काफी ताजीसे-ताजी जानकारी जुटाई गई है। इस महान् उथल-पुथलके कारणोंकी जाँच करना एक ऐसा विषय है जो कभी पुराना नहीं पड़ सकता। ये कारण इस अठवरका आकारकी पुस्तिकाके ८९ पृष्ठोंमें बड़े ही सुचिन्तित और सुव्यवस्थित तर्कोंके साथ संक्षेपमें पेश किये गये हैं । यहाँ इस पुस्तिका में से कुछ बड़े मार्केके उद्धरण देनेकी कोई सफाई देना जरूरी नहीं है । लेखक एक सच्चा ईसाई जिज्ञासु मालूम होता है। उसने युद्धके कारणोंको पाँच शीर्षकोंके अन्तर्गत विभक्त किया है, - आर्थिक साम्राज्यवाद, सैन्यवाद, गठबन्धन, गुप्त कूटनीति और भय । प्रथम शीर्षकके अन्तर्गत वह लिखता है :

दूसरे चार कारणोंसे सम्बन्धित उद्धरण बादमें स्थान उपलब्ध होते ही प्रकाशित किये जायेंगे।

श्री पेजकी पुस्तिका से ली गई महायुद्धके कारणोंकी दूसरी किस्त नीचे दी जाती है । मेरा मन पाद-टिप्पणियोंके अलावा और कुछ निकालनेके लिए नहीं हुआ ।'

मैं श्री पेजकी ज्ञानवर्द्धक पुस्तिकाके उद्धरणोंकी अगली किस्त नीचे दे रहा हूँ । उसमें से पाद-टिप्पणियोंके अलावा मैंने एक भी शब्द नहीं निकाला है।

श्री पेज युद्धसे होनेवाली क्षतिके बारेमें अपने अध्यायको इस प्रकार समाप्त करते हैं ।

श्री पेजने पुस्तिकाके अन्तिम अध्यायोंमें युद्ध रोकने के उपायोंपर विचार किया । पाठक देखेंगे कि लेखक इन उपायोंको इतने विश्वासोत्पादक ढंगसे पेश नहीं कर पाया है । किन्तु इसका कारण लेखकके अपने विश्वासमें किसी कमीका होना नहीं है, बल्कि इसका कारण यह है कि यह हम सबके लिए एक नया विषय है । कोई भी नहीं चाहता कि युद्ध हो । किन्तु युगों पुरानी इस प्रथाको सहजमें कैसे नष्ट किया जा सकता है ? क्या इससे बिलकुल छुटकारा पाना सम्भव है ? आइए हम देखें कि

१. उद्धरण यहां नहीं दिये जा रहे हैं ।

२. पुस्तिका से उद्धरण यंग इंडियामें २१ १९२६ के अंक में प्रकाशित की गई थी। परिचयात्मक टिप्पणियोंको एक साथ दे परिशिष्ट १ ।

३ से ५. श्रीपेजकी पुस्तिकाके इन उद्धरणोंके लिए देखिए यंग इंडिया, २६-११-१९२५; १०-१२-१९२५; १७-१२-१९२५ तथा १८-२-१९२६ ।