आसामियोकी लेनदारोंके साथ ऐसी व्यवस्था कराई भी थी, किन्तु इस मामलेमें व्यापारी न्याय करना नहीं चाहते थे । वे तो काछलियाको झुकाना चाहते थे। किन्तु काछ- लिया नहीं झुके और दिवालिये करार दे दिये गये, यद्यपि उनका माल और पावना बाद में उनकी देनदारीसे बहुत ज्यादा निकला ।
यह दिवालियापन उनके लिए कलंक रूप न था, बल्कि भूषण-रूप था। इससे कौममें उनका सम्मान बढ़ गया और सभीने उन्हें उनकी दृढ़ता और वीरताके लिए - बधाई दी । किन्तु इस प्रकारकी वीरता अलौकिक है। सामान्य मनुष्य इसे नहीं समझ सकता । सामान्य मनुष्य तो यह कल्पना भी नहीं कर सकता कि दिवाला किस तरह दिवाला न रहकर अथवा अपयश कैसे आदर और मानका रूप ले सकता है । काछलियाको यही बात स्वाभाविक लगी । बहुतसे व्यापारी केवल दिवालेके डरसे खूनी कानूनके आगे झुके थे । काछलिया चाहते तो दिवालेसे बच सकते थे। लड़ाईसे अलग होकर बचनेका उपाय तो था ही, किन्तु इस स्थानमें मेरे मनमें यह बात नहीं है । बहुत-से हिन्दुस्तानी काछलियाके मित्र थे । वे ऐसे संकटके समय उन्हें पैसा उधार दे सकते थे; किन्तु यदि वे ऐसी व्यवस्था करके अपने व्यापारकी रक्षा करते तो इससे उनकी वीरतामें बट्टा लगता। जेल जानेका जो जोखिम उनके सामने था वह तो सभी सत्याग्रहियों के सामने था । इसलिए किसी सत्याग्रहीसे पैसा लेकर गोरोंका पैसा चुकाना कभी शोभा न देता । किन्तु जैसे सत्याग्रही व्यापारी उनके मित्र थे वैसे ही कानूनके माननेवाले व्यापारी भी उनके मित्र थे । मैं जानता हूँ कि उन्हें उनकी सहायता मिल सकती थी। मुझे याद आता है कि उनके एक दो मित्रोंने उनके पास यह प्रस्ताव भेजा भी था । किन्तु उनकी सहायता लेना तो खूनी कानूनको मानना ठीक है, यह स्वीकार करनेके समान होता । इसलिए हम दोनोंने यह निश्चय किया कि उनकी सहायता कदापि नहीं ली जा सकती ।
इसके अतिरिक्त हम दोनोंने यह भी सोचा कि यदि काछलिया स्वयंको दिवा- लिया घोषित होने देंगे तो उनका दिवाला दूसरोंके लिए ढाल रूप बन सकता है, क्योंकि लेनदार शत-प्रतिशत नहीं तो नब्बे प्रतिशत दिवालोंमें कुछ-न-कुछ खोता ही है । यदि उसे रुपये में आठ आने मिलते हैं तो वह खुश होता है, और रुपयेमें बारह आने मिलते हैं तो उन्हें वह रुपये के बराबर ही मानता है, क्योंकि दक्षिण आफ्रिकाके व्यापार में बड़े व्यापारी सामान्यतः सवा छः प्रतिशत लाभ नहीं लेते, बल्कि पच्चीस प्रतिशत लाभ लेते हैं । इसलिए यदि उनको रुपये में बारह आने मिल जाते हैं तो वे उसे घाटेका व्यापार ही नहीं मानते। किन्तु दिवालेमें पावनेकी पूरी रकम तो शायद ही मिलती है । इसी कारण कोई भी लेनदार यह नहीं चाहता कि कर्जदारको दिवालिया बनवा दे। इसलिए काछलियाके दिवालेसे यह जरूरी था कि गोरे दूसरे व्यापारियोंको धमकी देना बन्द कर देते। ऐसा ही हुआ भी । गोरोंका उद्देश्य यह था कि काछलिया इस लड़ाईसे अलग हो जायें और यदि अलग न हों तो वे उनसे अपना पावना आना-पाईसे वसूल कर लें । इन दोनों उद्देश्योंमें से उनका एक भी उद्देश्य पूरा नहीं हुआ, बल्कि उलटा विपरीत परिणाम निकला। एक प्रतिष्ठित हिन्दु- स्तानी व्यापारीने दिवालेका स्वागत किया, इसका यह पहला ही उदाहरण था । गोरे