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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

लिखा है। यदि मेरे किसी भी लेखसे ये भारी बुराइयाँ दूर हो सके तो मैं हर हफ्ते बखूबी उनकी चर्चा किया करूँ, और एक ही बात तरह-तरहसे कही जा सके, इस खयालसे इस उद्देश्यके लिए दूसरे लेखक बन्धुओंकी सेवाएँ भी प्राप्त करनेकी कोशिश करूँ। लेकिन, जिन लोगोंका विचार इन पत्र-लेखक भाईके जैसा हो, उन्हें यह मालूम होना चाहिए कि हम जिन बुराइयोंको जानते है वे यदि आज भी मौजूद है तो इसका कारण यह नहीं है कि उनपर सार्वजनिक रूपसे चर्चा नहीं हुई है या शासक लोगोंको उन बुराइयोंकी जानकारी नहीं है। मुझसे योग्यतर व्यक्तियोंने भारत सरकारकी मुद्रा-नीतिका पर्दाफाश किया है। लेकिन इससे कोई लाभ नहीं हुआ है। इस नीतिको किसी उचित तर्कके बलपर नहीं, बल्कि "तलवारकी तेज धार" के बलपर कायम रखा जा रहा है। मैं तो समय और श्रमका उत्तम उपयोग करना चाहता हूँ। मेरा विश्वास तो पाठकोंके सामने वही चीजें रखनेमें है जिनको बाबत अगर वे चाह तो खुद कुछ कर सकते हैं। हम जिन बुराइयोका शिकार बनाया जा रहा है, उनके सम्बन्धमें मुझे पाठकोंकी भावना उभाड़नेकी कोई जरूरत नहीं है। उनके दंशका अनुभव तो वे रोज-रोज करते हैं, लेकिन वे असहाय है। इसलिए मेरा काम यही है कि मैं उनके सामने कोई एक उपाय रखूँ, या अगर बने तो एकाधिक उपाय पेश करूँ। इसलिए, एक ही बातको बार-बार कहकर लोकप्रियता खोने और लोगोंको ऊबा देनेवाला आदमी माने जानेका खतरा उठाकर भी मैं पाठकोंको अपनी सम्पूर्ण शक्ति लगाकर बराबर यही बताता आ रहा हूँ कि वे इस दलित देशके उद्घारमें कैसे सहायक बन सकते है।

विदेशी वस्त्रोंका बहिष्कार सबसे व्यवहार्य उपायोंमें से एक है और यह कई बुराइयोंको दूर करनेका सबसे कारगर उपाय भी है। इसलिए, मैं तो जो [मेरे लिए] एक सुखद विषय है, उसपर बराबर लिखता-बोलता ही रहूँगा।

अगर पत्र-लेखक महोदयका खयाल यह हो कि जबतक खादी या देशी मिलोंके कपड़ोंकी कीमतमें भी भारी कमी नहीं आती तबतक भारत विदेशी वस्त्रोंका बहिष्कार सम्पन्न नहीं कर सकता तो यह उनकी निरी भूल ही है। यह बहिष्कार तो तभी सम्पन्न हो सकेगा, जब यह राष्ट्र अपने राष्ट्र-धर्मको समझ लेगा। वह इसे एक बार समझ लेनेपर किसी भी कीमतपर उसका पालन करेगा ही। कोई सच्चा हिन्दू यह नहीं सोचता कि गायत्री-जापमें या अनेकानेक धार्मिक विधि-विधानोंके सम्पादनमें उसे कितना श्रम और समय लगाना पड़ता है। इसी तरह कोई सच्चा मुसलमान इस बातकी परवाह नहीं करता कि उसे दिनमें पाँच बार नमाज पढ़ने में कितना समय लगाना पड़ता है, और न वह बहिश्त पानेके किसी ज्यादा आसान रास्तेकी ही तलाश करता है। मैनचेस्टरके व्यापारियोंका कर्तव्य यही है कि वे अपने नफीस कपड़ोंको भारतके एक-एक गाँवमें सस्तेसे-सस्ते दामपर पहुँचाये। और उन ग्रामीणोंका कर्तव्य यह है कि वे उन बढ़िया कपड़ोंको ठुकराकर अपनी खुरदरी खादीको ही जो विशुद्ध आर्थिक दृष्टिकोणसे देखनेपर मैनचेस्टरके उस नफीस कपड़ेसे कहीं महंगी पड़ेगी, स्वीकार करें। हमें यह क्यों मानना चाहिए कि हमारा कोई भी आन्दोलन