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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

करना पड़े। आर्थिक दृष्टिसे देखें तो मानना पड़ेगा कि लोगोंसे काम लेकर उन्हें खिलानेपर जो खर्च आयेगा वह कमसे-कम शुरूमें तो मौजूदा मुफ्तके भोजनालयोंके खर्चसे ज्यादा होगा। लेकिन अगर हमें यह मंजूर न हो कि निठल्लोंका वर्ग, जो इस देशमें तेजीके साथ बढ़ता जा रहा है, दिन दूना और रात चौगुना बढ़े तो मेरा निश्चित विश्वास है कि उक्त रीतिसे काम करना अन्ततः किफायत साबित होगी।

वर्णाश्रम और अस्पृश्यता

एक सज्जन लिखते हैं :
२३ अप्रैल, १९२५के 'यंग इंडिया' में वर्णाश्रमके विषयमें लिखे मेरे पत्रपर आपकी जो टिप्पणी प्रकाशित हुई है, उसके सम्बन्धमें मैं कहना चाहता है कि वर्णाश्रम और अस्पश्यताका फर्क में पूरी तरह समझता है और यह भी स्वीकार करता हूँ कि हिन्दूधर्ममें अस्पृश्यताका कहीं भी कोई विधान नहीं है। लेकिन क्या यह बात बिलकुल स्पष्ट नहीं है कि अगर 'जन्मके आधारपर कर्म विभाजनका सिद्धान्त, जिसे आप ठोक मानते हैं, हमारे सामाजिक संगठनका आधार बना रहा तो हमारे समाजमें अस्पृश्य लोग भी सदा रहेंगे ही? स्वभावतः यह मानना होगा कि उस हालतमें समाजके जो सदस्य झाड़ने-बुहारने, मरे हुए पशुओंको हटाने, कब खोदने आदिका काम करेंगे, उनके प्रति बराबर समाजका रुख यही बना रहेगा कि वे इतने गन्दे हैं कि उनके स्पर्शसे दूर ही रहना चाहिए। दूसरे तमाम देशों में मेहतरों, मोचियों, नाइयों, घोबियों, कब्र खोदनेवालों, अन्तिम संस्कारका प्रबन्ध करनेवालों आदिको न व्यक्तिके रूपमें अस्पृश्य समझा जाता है और न वर्गके रूपमें। उसका सीधा-सादा कारण यह है कि उन देशोंमें ये काम वंशानुगत नहीं हैं, और इनमें से किसी भी वर्गका कोई भी सदस्य, जब चाहे तब, सिपाही, व्यापारी, शिक्षक, वकील, राजनीतिज्ञ या पुरोहित बन सकता है। इसलिए मुझे तो यही लगता है कि हमारे देशमें, इस बुराईके इतने असाधारण रूपसे घर कर जानेके मूलमें हमारी वह विशिष्ट सामाजिक व्यवस्था ही है, जो मात्र वंश-परम्परापर आधारित है। और मुझे यह भी लगता है कि जबतक हम इस सिद्धान्तसे चिपटे हुए हैं, तबतक अस्पृश्यतासे छुटकारा नहीं पा सकते। यह बात समझमें आने लायक है कि रामानुजाचार्य-जैसे महान् सुधारकोंके प्रभावसे या प्रबल राजनीतिक जागृतिके परिणामस्वरूप इस प्रथाका जहर कभी-कभी कुछ कम हो जाये, लेकिन इस बराईका समूल नाश नहीं हो सकता। मुझे तो लगता है कि इस बराईको दर करनेका कोई भी प्रयत्न उसी तरह व्यर्थ साबित होगा, जिस तरह किसी पेड़के शीर्ष भागको काटकर उस पेड़को गिरानेका प्रयत्न करना।

इस पत्रमें कही गई बात काफी तर्कसंगत मालूम होती है, और अगर सुधारक लोग सावधानीसे काम नहीं लेते तो हो सकता है, पत्र-लेखकने जो आशंकाएँ व्यक्त की