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२३. लोकमान्यकी पुण्यतिथि

लोकमान्यकी पुण्य-तिथि आई और चली गई; यहाँ कलकत्तामें भी यह तिथि मनाई गई। मुझे भी सम्बन्धित सभाओंमें जाना था। दो जगह सभाएँ हुईं; लोग मझे दोनोंमें ले गये। मैं उनमें क्या बोलता?

पुत्र पिताकी पुण्यतिथिपर क्या करता है? यदि वह सपूत हुआ तो अपने पिताके गुणोंका बखान नहीं करता, बल्कि उसके पिता जो चाहते थे, ऐसा कोई काम करता है। आजकलकी सभाओं में भी हम अपने स्वर्गवासी नेताओंके पुत्र आदिको भाषण देनेके लिए निमंत्रित नहीं करते। उसमें उन्हें और हमें दोनोंको संकोचका अनभव होता है। दो नेताओंकी पुण्य-तिथियाँ एकके बाद एक पास ही पास आई थीं—पहले अब्दुल रसूलकी और बादमें लोकमान्यकी। पहली सभामें मैंने मौलाना अब्दुल रसूलके दामादको देखा। उनसे किसीने भाषण करनेको नहीं कहा; यह काम दूसरोंका माना गया। इसका अर्थ यह हुआ कि हम दिवंगत नेताओंके सगे-सम्बन्धियोंसे अलग हैं, इतने अलग जितने कि अँगुलियोंसे नख। लेकिन वास्तवमें ऐसा होना नहीं चाहिए। यदि पुत्र भाटकी नाई अपने पिताका गुणगान नहीं कर सकता तो हमें भी नहीं करना चाहिए।

इसलिए मैंने तो यह निश्चय कर लिया था कि मैं दिवंगत नेताओंका गुणगान नहीं करूँगा। लोकमान्यकी पुण्य-तिथिपर मैं बहुत पशोपेशमें पड़ गया। अभी कल ही तो इसी भवनमें मैं चरखेकी चर्चा कर गया हूँ। आज फिर क्यों मैं वही करूँ? मेरे अन्तर्मनसे मुझे उत्तर मिला, 'निन्दा, उपहास या मारके डरसे भागकर तू कहाँ जायेगा? तू तो सत्यका आग्रह लेकर बैठा है। जो तुझे सत्य लगता है वह यदि जगत्को असत्य लगे तो भी क्या? उस सत्यको कहना और उसका पालन करना ही तेरा धर्म है।' अतः मैंने तो फिर वे ही बातें कहीं।

"स्वराज्य मेरा जन्म-सिद्ध अधिकार है", यह श्लोकार्घ जनताको तिलक महाराजने दिया। इसके उत्तरार्धको लिखनेका काम जनतापर छोड़कर वे स्वर्ग सिधार गये। जनताने उनकी इस सूक्तिके उत्तरार्धको पूरा किया। वह यह कि "चरखा और खादी उस अधिकारको प्राप्त करनेके साधन है।" स्वराज्य शिक्षित वर्गके लिए ही नहीं है, हिन्दू अथवा मुसलमानोंके लिए नहीं है, सिर्फ धनवानोंके लिए भी नहीं है, लोकमान्यका स्वराज्य तो हिन्दू, मुसलमान, सिख, पारसी, ईसाई आदि सबके लिए है। यह जिस तरह शिक्षित लोगोंके लिए है, उसी तरह अशिक्षित लोगोंके लिए भी है; जैसे पुरुषोंके लिए है, वैसे ही स्त्रियोंके लिए भी है। जिस प्रकार शहरी लोगोंके लिए है, उसी प्रकार देहातियोंके लिए भी है। फिर, यह स्वराज्य ऐसा है, जिसको प्राप्त करनेमें सभी लगभग एक समान मेहनत कर सकते हैं। एक ही जाति अथवा एक ही वर्गके प्रयत्नोंसे मिलनेवाला स्वराज्य, स्वराज्य नहीं बल्कि उस जाति अथवा वर्गका राज्य होगा। तब वह कौन-सी मेहनत है, जो सब कर सकते हैं और जिसे