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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय


ये खादी-प्रेमी भाई न चाहते हुए भी लाचार होकर जिस तर्क-जालमें फंस गये हैं, वह शैतानकी पुरानी तरकीब है। जब हम किसी सत्कार्यमें प्रवृत्त होते हैं तो वह आधे रास्तेतक हमारे साथ चलता है और फिर अचानक युक्तिपूर्वक हमें सुझाता है कि अब इससे आगे जानेसे कोई लाभ नहीं है और फिर हमारा ध्यान अधिक आगे बढ़नेकी झूठी और ऊपरी असम्भाव्यताकी ओर दिलाता है। वह सद्गुणोंकी प्रशंसा करता है, किन्तु दूसरे ही क्षण यह भी कह देता है कि उन्हें प्राप्त करना मनुष्यों के बसकी बात नहीं है।

इन भाईके सामने जो कठिनाई आई है, वह सभी सुधारकोंके सामने कदम-कदमपर आती है। क्या समाज असत्य और कपटसे भरा हुआ नहीं है? किन्तु, तब भी, जो लोग मानते हैं कि अन्ततः सत्यकी विजय होगी ही, वे सफलताकी अखण्ड आशा लिये हुए सत्यके मार्गपर आरूढ़ ही रहते हैं। सुधारक समयके प्रवाहको अपने खिलाफ सफल नहीं होने देता, क्योंकि वह उस पुरातन शत्रुका डटकर सामना करता है। निस्सन्देह उद्योगवाद प्रकृतिकी एक शक्तिके समान प्रबल है, किन्तु मनुष्य भी तो प्रकृति और प्रकृतिकी शक्तियोंपर विजय पानेकी शक्तिसे सम्पन्न है। उसकी गरिमा इसी बातमें निहित है कि भारीसे-भारी कठिनाइयोंके सामने भी वह निश्चय और संकल्पसे काम ले। हमारा दैनिक जीवन इसी तरह के संघर्ष और विजयकी कहानी है। एक किसान तो इस बातको और भी अच्छी तरह जानता है।

और उद्योगवाद, विशाल जनसमुदायपर मुट्ठी-भर लोगोंका प्रभुत्व नहीं तो और क्या है? इसमें न कोई आकर्षण है और न कोई ऐसी चीज है जिसके कारण इसे अवश्यम्भावी माना जाये। अगर बहुसंख्यक समाज अल्पसंख्यकोंकी चिकनी-चुपड़ी और बहकानेवाली बातोंपर सिर्फ 'न' कहने का इरादा कर ले तो अल्पसंख्यकोंमें कोई दुष्टता करनेकी शक्ति रह ही नहीं जाय

मानव-स्वभावमें आस्था रखना अच्छी बात है। म इसीलिए जीवित है कि मुझमें वह आस्था है। लेकिन, उस आस्थाके कारण मैं इस ऐतिहासिक तथ्यकी ओरसे अपनी आँखें बन्द नहीं कर सकता कि यद्यपि अन्तमें सब-कुछ ठीक-ठीक ही होता है, किन्तु अतीतमें व्यक्तियोंका नाश तो हुआ ही है, और राष्ट्र नामसे पुकारे जानेवाले जनसमाज भी विनाशको प्राप्त हुए हैं। रोम, यूनान, बेबीलोन, मिस्र तथा अन्य अनेक राष्ट्र इस बातके ज्वलन्त प्रमाण है कि अपने कुकृत्योंके कारण अतीतमें राष्ट्रोंका नाश हुआ है। इस हालतमें आशा यही की जा सकती है कि अपनी तीक्ष्ण और वैज्ञानिक बद्धिके बलपर यरोप इस साफ-सीधी बातको समझ सकेगा और अपने कदम वापस ले लेगा, तथा नैतिक पतनके गर्त में ले जानेवाले इस उद्योगवादके जालसे निकलनेका रास्ता ढूंढ लेगा। कोई जरूरी नहीं कि इसका मतलब पुनः उस पुरानी नितान्त सादगीकी ओर लौट जाना ही होगा। लेकिन, समाजका ऐसा पुनर्गठन तो अवश्य करना होगा जिसमें ग्राम्य जीवनको प्रमुखता प्राप्त होगी और पाशविक तथा भौतिक शक्ति आत्मिक शक्तिके अधीन रहेगी।

और अंतमें हमें गलत उदाहरणों के जाल में नहीं फंसना चाहिए। यूरोपिय लेखकोंकी एक कठिनाई यह है कि उनके पास अनुभव और सही जानकारी नहीं है।