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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

नहीं सकती; और वे वहाँके भारतीय निवासियोंको अगर मिटा न देंगे तो उनकी स्थिति ऐसी कठिन बना देंगे कि उन्हें दक्षिण आफ्रिकासे भागना ही पड़ेगा और उनकी हालत ऐसी करके छोड़ेंगे कि वे फिर समानताका नाम नहीं लेंगे। शहरका कोना उनके रहने की उचित जगह है और शारीरिक श्रम ही उनका उचित कार्य-क्षेत्र है। अर्थात् हमें दुनियाकी दलित जाति बनकर ही रहना है। परन्तु इस बुराईका उल्लेख करनेसे उसका निराकरण नहीं हो जाता। "कोई परिया अर्जी न दे" यह स्थायी सूचना-पट्ट तो मानो साम्राज्यके हर सचिवालयमें लगा हुआ है। सवाल यह है कि अब करे क्या? फीरोजशाह मेहताको तो मेरा दक्षिण आफ्रिका जाना ही पसन्द नहीं था। उनका कहना था कि जबतक भारतमें हमारा हक नहीं मिल जाता तबतक दक्षिण आफ्रिकामें कुछ नहीं हो सकता। लोकमान्यने भी इसीसे मिलती-जुलती बात कही थी—"पहले स्वराज्य प्राप्त कर लो, फिर और बातें अपने-आप हो जायेंगी।" यही उनका सूत्र था। परन्तु स्वराज्य इस बातपर निर्भर करता है कि भारत कुल मिलाकर कितनी शक्तिका परिचय देता है। आज हमारा मूल मन्त्र यही है कि भीतरसे, बाहरसे सब ओरसे काम करो, प्रयत्न करो। यह कशमकश, यह व्यथा बहुत दिन चलनेवाली है, लेकिन आवश्यक प्रसूति-पीड़ाके बिना नया जन्म नहीं होता। इस अनिवार्य जीवनदायी, जीवन-पोषक साधनाके बिना हमारा काम नहीं चल सकता, यद्यपि यह साधना अतीव कष्टकर है। दक्षिण आफ्रिकावासी हमारे देशबन्धुओंको अडिग भावसे अपनेतई अधिकसे-अधिक कोशिश करनी चाहिए। यदि उनके अन्दर वह पुरानी प्रतिरोध शक्ति और संगठन है और यदि वे समझते हों कि समय आ पहुँचा है तो वे आगे बढ़ें और कष्ट-सहनकी शूलीको गले लगायें। हाँ, इस बातका निर्णय उन्हें स्वयं करना है कि वे इसके लायक हैं या नहीं और इस कष्टके समुद्र में गोता लगानेकी ठीक घड़ी आ गई है या नहीं। यह तो वे जान ही रखें कि भारतका लोकमत उनके साथ है। पर वे यह भी समझ लें कि यह लोकमत ऐसा है जो उन्हें सहायता देनेकी शक्ति नहीं रखता है। इसलिए उन्हें कष्टों और कठिनाइयोंको झेलनेकी खुद अपनी शक्ति और क्षमतापर तथा अपने पक्षकी सहज न्याय्यतापर ही निर्भर रहना है।

एक देश-सेवकके कष्ट

देश-सेवामें दुःख उठानेवाले एक सेवकका हाल सुनिए :

क्या आप देशके लिए दुःख भोगनेवाले एक व्यक्तिके निर्धन और क्षुधापीड़ित परिवारकी कुछ सहायता करेंगे? आप हमारे पूज्य नेता स्वर्गीय देशबन्धु दासके स्मारकके लिए लाखों रुपये आसानीसे एकत्र कर सकते हैं पर आप मेरे कुटुम्बवालोंके भरण-पोषण तथा देहातमें चरखा-प्रचारके लिए कमसे-कम ५,०००) देकर मेरे दरिद्र परिवारकी सहायता नहीं कर सकते। यदि आप पूज्य. . .[यहाँ कुछ नाम दिये हुए हैं] को दो शब्द मेरे लिए कह देंगे तो मुझे निश्चय है कि ५,०००) नहीं तो २,०००) अवश्य मिल जायेंगे। आपने मुझे लिखा है कि कपड़ा बुनना शुरू कर दो और हर महीने १५ रुपये कमाओ। मैं बुनना नहीं जानता। आपका सूत्र है, "काम नहीं तो खाना नहीं।" क्या आप मुझे