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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय
संस्कृति आज ब्रह्माकी उन सन्ततियों द्वारा, जिनमें अगर आपसमें कोई समानता है तो यही कि प्राचीन पौराणिक मान्यताओंके अनुसार वे सब एक ही वंशके हैं, करोड़ों मानवोंके शोषणका समर्थन कर रही है। अहिंसाके सिद्धान्तने हमें कर्त्तव्यसे जी चुरानेवाला पाखण्डी और कायर बना दिया है। हिन्दू हिन्दूके साथ ईमानदारीका बरताव कभी नहीं करता, जबकि मुसलमान मुसलमानके साथ और ईसाई ईसाईके साथ पूरी ईमानदारीका व्यवहार करता है। हिन्दू लोग दूसरोंके रीति-रिवाजोंके प्रति अधिक सहिष्णुतापूर्ण रुख रखते हैं, जो उनकी कायरताका एक दूसरा उदाहरण है। मुसलमान दूसरोंके रीति-रिवाजोंके प्रति कभी भी सहिष्णुता नहीं बरतते, और ईसाई लोग भी बहुत कम ही बरतते हैं। क्या शिक्षित हिन्दू लोग इस ढकोसलेको इसी तरह चलाते रहेंगे या कि वे हथियार उठाकर इसका अन्त भी करेंगे?

पत्र-लेखकने जो-कुछ कहा है, उसपर मैं कोई प्रकाश तो नहीं डाल सकता, लेकिन कुछ सलाह जरूर दे सकता है। सुधारका प्रारम्भ तो स्वयं अपनेको ही सुधार कर करना चाहिए। 'वैद्यराज, पहले अपने-आपको ठीक करो', यह सिद्धान्त बिलकुल सही जान पड़ता है। जो लोग हिन्दुओंकी नैतिक दुर्बलता और कायरताको महसूस करते हैं, वे कमसे-कम अपनी नैतिक दुर्बलता और कायरताको दूर करके तो इस ओर कदम बढ़ा ही सकते है। यह माना जा सकता है कि यह आरोप आम तौरपर सही है; लेकिन कुछ मर्यादाओंके साथ ही ऐसा माना जा सकता है। फिर भी—क्या हथियार उठा लेनेसे यह बुराई दूर हो जायेगी? तलवारके जोरपर नैतिक दुर्बलताका इलाज कैसे किया जा सकता है? क्या अनगिनत उपजातियों या अस्पृश्यता अथवा कर्मकाण्डको, जो अक्सर निरर्थक ही हुआ करता है, जोर-ज़बर्दस्तीसे दूर किया जा सकता है? क्या इसका मतलब धर्ममें जोर-ज़बर्दस्तीके तरीकेको दाखिल करना नहीं होगा? अगर बुद्धि ही ईश्वर है तो मनुष्यको सही रास्तेपर लानेके लिए तलवारका नहीं, बल्कि बुद्धिका सहारा लेना चाहिए।

क्या पत्र-लेखकके मनमें यहाँ हिन्दू-मुस्लिम तनावकी बात है? क्या वे चाहते है कि हिन्दू तलवार उठाकर इसका निराकरण करें? ध्यानसे देखनेपर मालूम होगा कि अधिकांश प्रसंगोंमें तो तलवारका प्रयोग अनावश्यक ही नहीं हानिप्रद भी है। आवश्यकता सिर्फ कष्ट-सहनकी कलाकी है। मैं तो मानता हूँ कि हमारी कायरताका कारण अहिंसा धर्मका आधिक्य नहीं, बल्कि हमारे बीच उसका अभाव है। निश्चय ही, जो लोग हमारे विरुद्ध खड़े हैं, उनके अहितकी कामना करना अहिंसा नहीं है, बल्कि वह तो अहिंसा धर्मसे हमारी अनभिज्ञताकी द्योतक है। जो लोग तलवार नहीं उठाते वे अहिंसाको भावनाके कारण ऐसा न करते हों, सो बात नहीं है। सच्चाई तो यह है कि वे मरनेसे डरते हैं। मैंने अकसर ऐसी कामना प्रदर्शित की है कि जिनके मनमें शस्त्र-प्रयोगके विषयमें कोई दुविधा न हो, उनका हथियार उठानेका साहस दिखाना ही अच्छा है। तब हम उन तथाकथित अहिंसावादियोंके