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ये अटपटे सवाल

किया जाये तो कहना होगा कि यह आवश्यक नहीं कि शारीरिक मेहनत करके ही आजीविका प्राप्त की जाये। लेकिन हर आदमीको कुछ-न-कुछ उपयोगी शारीरिक मेहनत अवश्य करनी चाहिए। जहाँतक मेरा सम्बन्ध है, अभी तो मैं शारीरिक मेहनतके रूपमें सिर्फ सूत कातने का ही काम करता हूँ। यह सांकेतिक ढंगकी चीज है। मैं काफी शारीरिक मेहनत नहीं कर रहा हूँ। और में जो अपनेको मित्रोंके दानपर जीनेवाला कहता हूँ, उसका एक कारण यह भी है; लेकिन में यह भी मानता हूँ कि हरएक राष्ट्रमें ऐसे लोगोंका होना भी जरूरी है जो अपना शरीर, मन और आत्मा सब कुछ राष्ट्रको अर्पण कर दें और अपनी आजीविकाके लिए अपने देशभाइयोंपर, अर्थात् ईश्वरपर, निर्भर रहें।

मुझे खयाल है कि आपने कहींपर यह कहा है कि युवकोंको अपनी आवश्यकताएँ घटा देनी चाहिए और इस तरह उन्हें सिर्फ ३० रुपये माहवारपर ही गुजारा करना चाहिए। क्या शिक्षित युवकोंके लिए बिना पुस्तकोंके, बिना किसी भी प्रकारका सफर किय, या बड़े-बड़े आदमियोंके सम्पर्कमें आनेकी इच्छातक मनमें लाये बिना रह सकना मुमकिन है? यह सब करने के लिए पैसे की आवश्यकता तो होगी ही। उन्हें बीमारी, वृद्धावस्था या ऐसी ही दूसरी स्थितियोंमें अपनी आवश्यकताओंको पूरा करने के लिए कुछ बचाना भी चाहिए ही।

सुव्यवस्थित समाजमें राष्ट्रके ऐसे सेवकोंके लिए, जिनका कि पत्र-लेखक महाशय उल्लेख कर रहे हैं; निःशुल्क पुस्तकालय रहेंगे, जिनका वे उपयोग कर सकेंगे। उनके सफरका खर्च भी राष्ट्र देगा। और इन राष्ट्र-सेवकोंका कार्य ही ऐसा होता है, जो उनको सहज ही बड़े-बड़े आदमियोंके साथ सम्पर्कका सुअवसर देगा। बीमारी, वृद्धावस्था इत्यादिमें भी राष्ट्र उनकी आजीविकाकी व्यवस्था करेगा। हिन्दुस्तानके लिए या किसी भी देशके लिए यह कोई नई बात नहीं है।

ऐसा लगता है कि पंचम भाइयों की हालत सुधारनेके लिए आप उनके लिए मन्दिर बनवाने की सलाह देते हैं। क्या यह सच नहीं है कि पीढ़ियोंसे हिन्दुओंका मानस मन्दिरों-जैसी चीजोंसे ही इतना ज्यादा बँधा रहा है कि आम तौरपर उनमें इन मन्दिरोंसे परे ईश्वरके व्यापकतर रूपकी कल्पना करने की शक्ति ही नहीं रह गई है? जब आप अस्पृश्यताको दूर करना चाहते हैं, जब आप अस्पृश्योंको ऊपर उठाना चाहते हैं और समाजमें उन्हें स्वतन्त्रता और इज्जतकी जगह देना चाहते हैं, तब क्या आपके लिए यह जरूरी है कि आप उन्हें आजकलके सवर्ण हिन्दुओंकी बुराइयों, पापाचारों और अन्धविश्वासोंका भी अनुकरण करनेके लिए प्रोत्साहित करें? अस्पृश्योंका सुधार करते समय हम तमाम हिन्दू जातिका भी सुधार क्यों न करें—कमसे-कम मन्दिरके देवताओंकी पूजाकी हदतक? अस्पृश्योंकी वर्त्तमान सामाजिक निर्योग्यताओंको दूर करनेके प्रयासके क्रममें क्या हमें उनके मन और विचारको भी बन्धनोंसे मुक्त करनेका प्रयत्न नहीं करना चाहिए ताकि सामाजिक सुधारके साथ-साथ उनमें एक व्यापकतर धार्मिक और बौद्धिक दृष्टिकोण भी आ सके?

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