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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

था। उन्हें तो उस समय ईश्वर-दर्शनकी ही लगन लगी हुई थी। आज जबकि मेरे जीवनमें विनयके साथ कड़वी बातें सुननेका कठिन प्रसंग उपस्थित हो गया है तब ऐसे श्रीमद राजचन्द्रका स्मरण करके, उनकी अहिंसाकी स्तुति करके मैं सौभाग्यका अनुभव करता है। आइये आज हम उस वस्तुको जो हमारी आत्माको दूधके समान स्पष्ट दिखाई देती हो, जगतमें किसीका भय किये बिना प्रकट करने की शक्ति इस पुरुषकी स्मृतिसे प्राप्त करें। भय एकमात्र 'चैतन्य' का रखें; इस बातकी चिन्ता रखें कि जो २४ घंटे निरन्तर हमारी चौकसी करता है कहीं उसे ठेस तो नहीं पहुँचती। राजचन्द्रके जीवनसे उनकी अनन्त तपश्चर्या सीखें, और जिस अनन्त तपश्चर्या के फलस्वरूप वे चैतन्यकी ही आराधना करने लगे, उसे समझे। और हम अपनी क्षद्रताका विचार करके बकरीके समान निरीह बने तथा अपने में विराजमान चैतन्यका विचार कर सिंहके समान समर्थ बनें तो हमारा जीवन सार्थक है।

[गुजरातीसे]
नवजीवन, ८–११–१९२५
 

२२३. गोरक्षाकी योजना

गोरक्षाका काम चींटीकी तरह धीरे-धीरे रेंग रहा है। मैं गो-सेवकोंसे इतना कह सकता हूँ कि उसकी गति एक क्षणके लिए भी रुकी नहीं है। मैं दिन-रात इसपर विचार करता हूँ। बहस भी काफी करता हूँ। कच्छमें बहुतसे गो-सेवक हैं और मैं फिर कभी कच्छ आ सकूँगा, इसकी मुझे कोई आशा नहीं है। इसलिए मैंने अपनी यह योजना बनाकर कुछ रुपये भी इकट्ठे किये हैं। यह लिखते समयतक लगभग तीन हजार रुपये इकट्ठे हो गये हैं और मुझे आशा है कि अभी और भी होंगे।

कुछ मित्रोंने मुझे गोरक्षाको योजना उसके आँकड़ोंके साथ प्रकट करने को कहा है। योजना इस प्रकार है।

(१) मरे हुए ढोरोंका चमड़ा विदेशोंमें चला जाता है और कत्ल किये गये ढोरोंका चमड़ा हम लोग अपने इस्तेमालमें लाते हैं। इसमें जो पाप होता है उसके लिए हम ही जवाबदेह है। उसे रोकने के लिए चर्मालय हमें अपना धर्म समझकर चलाने होंगे। इसमें मुझे अब कोई सन्देह नहीं रहा है कि गोरक्षाका यह एक अंग ही बन जाना चाहिए। इस कार्यका आरम्भ स्वयं एक चर्मालय हाथमें लेकर ही किया जा सकेगा। इस कार्यके लिए आज सवा लाख रुपये की जरूरत है। इस कार्य में आखिर कुछ नुकसान नहीं होना चाहिए-नफा तो कोई करना ही नहीं है, इसलिए इसमें किसीसे भी स्पर्धाका कोई डर नहीं है।

(२) इस कार्य के लिए काम करनेवालोंको भी तैयार करना होगा। इसमें कुछ अध्ययनकी भी आवश्यकता है। योग्य काम करनेवाले सीखने के लिए तैयार हों