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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

की गई थी। ऐसी स्थितिमें मैं क्या कहता? मैंने सुधारोंके बारेमें बोलनेके बदले मुख्य रूपसे बहिष्कारके सिद्धान्तकी बात उनके सम्मुख रखी। मैं जानता था कि बहिकारने उनमें भयंकर स्वरूप धारण कर लिया है और उसके कारण कटुता फैल गई है। चूंकि यह बात हिन्दू-मात्र पर लागू होती है, इसलिए इस भाषणका सार में यहाँ प्रस्तुत कर रहा हूँ।[१]

बहिष्कारके शस्त्रका सदुपयोग तभी होता है जब वह शुद्ध मनुष्योंके हाथोंसे हो; नहीं तो वह निरी हिंसाका स्वरूप धारण कर लेता है तथा उपयोगकर्ता एवं जिसके विरुद्ध उसका उपयोग किया जाता है कदाचित् उसके लिए भी नाशकारक सिद्ध होता है।

आजकल हम बहिष्कार करनेके योग्य नहीं रह गये हैं। यदि एक पिता अपनी उस पुत्रीका विवाह करे जो दस वर्षकी उम्रमें विधवा हो गई हो तो उसे, उस बालिकाको एवं उसके साथ विवाह करनेवालेको जाति बहिष्कृत करने में पुण्यकी क्या बात है? जो लोग अनीतिपूर्ण आचरण करते हैं, जो खुले आम व्यभिचार करते है, मांस-मदिराका सेवन करते हैं, उन लोगोंको जाति बहिष्कृत नहीं किया जाता। जो मानसिक व्यभिचार करते हैं उनके साथ क्या व्यवहार किया जाता है? तात्पर्य यह कि जबतक हम लोग शुद्ध नहीं हैं तबतक कौन किसका बहिष्कार करने योग्य है? कोई भी नहीं।

बहिष्कारका परिणाम यह होता है कि इससे एक नई जातिका निर्माण हो जाता है। हम आज जिन्हें 'तड़' कहते हैं वे कल जातियाँ बन जायेंगी। इसलिए इस युगमें जहाँ जातियोंका संकर हो रहा है, बहिष्कार सर्वथा अनिष्टकारक है।

वर्णाश्रम धर्म है, जातियाँ धर्म नहीं। वर्णाश्रमकी रक्षा इष्ट है, जातियोंका नाश अभीष्ट है। इसके लिए सुधारकोंको प्रोत्साहन दिया जाना चाहिए। हम चाह जा करें, इस तरहके सुधारोंका होना रोका नहीं जा सकता। क्योंकि हिन्दुधर्ममें बहत मलिनता आ गई है और आज सभी दिशाओंमें जागृति हो रही है।

समझदारीकी बात यह है कि सुधारको धर्मका स्वरूप दिया जाये। जहां ऐसा जान पड़े कि सुधार ठीक नहीं है, बहिष्कार तो वहां भी अनिष्ट-रूप ही है।

मारवाड़ी कौम बुद्धिमान है, साहसी है। उसने भारतवर्षका उपकार और अपकार दोनों ही किये हैं। मित्रके रूपमें अपकारकी बात भी सुनाना मेरा धर्म है। ईश्वर उसे उससे बचाये और उसका कल्याण करे।

जिनका बहिष्कार किया जाये उन्हें चाहिए कि वे मर्यादामें रहकर विवेकपूर्वक कटुताको फैलनेसे रोकें और अपनी नीतिपर दृढ़ रहें। बहिष्कारके विषयमें मैंने यही कहा।

दानमें विवेकशीलता

मैंने मारवाड़ी भाइयोंकी दान-वृत्तिकी प्रशंसा करते हुए दानमें विवेककी आवश्यकताकी बात कही। कार्नेगी अरबपति हो गये हैं। उन्हें बिना विचारे पुस्तका-

  1. देखिए खण्ड २७, पृष्ठ ४२७–२९।